काल, तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू- तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे, एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि भाव, भावोपरि सुख, आनंदोपरि सत्य, सत्यासत्योपरि मैं- तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर! सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल ! जो मैं हूँ-
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मैं कि जिसमें सब कुछ है... क्रांतियाँ, कम्यून, कम्यूनिस्ट समाज के नाना कला विज्ञान और दर्शन के जीवंत वैभव से समन्वित व्यक्ति मैं। मैं, जो वह हरेक हूँ जो, तुझसे, ओ काल, परे है... काल, तुझसे होड़ है मेरी।