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गुरुदेव की रचनाएँ

पुण्यतिथि पर विशेष

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घिर आई आसाढ़ी संध्य
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घिर आई आसाढ़ी संध्या
डूब गया दिन ढल कर।
बंधनहीन वृष्टि की धारा
झर-झर झरती गल कर

घर के कोने बैठ विजन में,
क्या जो सोचूँ अपने मन में,
भीगी हवा यूथिका-वन में,
कह क्या जाती चल कर।
आज लहर लहराई हिय में
ढूँढे कूल न पाता
ओदे वन का फूल महक कर
मेरे प्राण रुलाता।

अंधियारी निशि की पहरें ये,
भर दूँ किस सुर की लहरें ले,
कौन भूल, जो सब कुछ भूले,
प्राण आज आकुलतर।
बंधनहीन वृष्टि की धारा
झर-झर झरती गल कर।

सावन के घन गह
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सावन के घन गहन मोह से
चुपके पाँव दबा कर,
आए तुम रजनी - से नीरव
सबकी आँख बचा कर

आज किए हैं लोचन बंद प्रभात
वृथा पुकार लौट जाता है वात
किसने नंगे नील गगन का गात
कजरारे मेघों से डाला है भर

कूजनहीन हरित कानन है
बंद पड़ा है घर-घर
हे एकाकी पथिक, कौन तुम
इस सुनसान डगर पर

हे नि:संग मीत मेरे, प्रिय, प्यार
खुला प्रतीक्षा में इस घर का द्वार
सम्मुख से हो स्वप्न सरीखा पार
मत जाओ तुम मुझको यों ठुकरा कर।

फिर आया आषाढ
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फिर आया आषाढ़ गगन में छाया,
मंद पवन में सौंधा सौरभ
पावस का लहराया

फिर से मेरा यह बूढ़ा अंतस्तल
लगा नाचने गाने पुलकित चंचल
नए सघन घनश्याम सजल की
देख मोहिनी माया
फिर आया आषाढ़, गगन में छाया।

दूर प्रसारी खेतों पर रह-रहकर
छांह मेघ की पड़ती नव तृण दल पर
'आया वह आया' ये रटते प्राण
'आया वह आया' के उठते गान
आकर बसा नयन में मेरे
मन में समुद्र समाया

फिर आया आषाढ़, गगन में छाया,
मंद पवन में सौंधा सौरभ
पावस का लहराया।

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