- चित्रा देव
मध्यवित्त बंगाली जीवन की निपुण चितेरी आशापूर्णा देवी बांग्ला साहित्य जगत में एक स्मरणीय नाम है। उन्होंने लिखी हैं- असंख्य छोटी-छोटी कहानियां, अनेक उपन्यास, जिनमें हैं- 'प्रथम प्रतिश्रुति', 'सुवर्णलता' और 'बकुल कथा' जैसी असाधारण उपन्यासत्रयी। इस विशाल ग्रंथत्रयी में उन्होंने लिखा है- अतःपुर का इतिहास। पुरुषों द्वारा लिखे इतिहास में यह अंतःपुर चिरकाल से उपेक्षित रहता आया है। जिस वंचना और निष्ठुर अपव्यय का चित्र सदा हमारी आंखों से ओझल रहता आया है आशापूर्णा देवी ने केवल उसी चित्र को हमारे सामने लाकर नहीं रख दिया है बल्कि उसके साथ ही घरेलू जीवन की प्रतिदिन की सैकड़ों तुच्छताओं के बीच जिस विद्रोह कथा के विस्फोट की संभावना रहती है उस ओर भी हमारी दृष्टि आकर्षित की है।
व्यक्तिगत जीवन में वे साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की कन्या एवं गृहिणी हैं। तत्कालीन रूढ़िवादी समाज की अतिरूढ़िवादिता के कारण उन्हें स्कूल में पढ़ने का सुयोग नहीं मिला था। परिचय की सीमा बहुत दिनों तक परिवार की चहारदीवारी के भीतर ही आबद्ध रही। इस पर भी उनमें एक आश्चर्यजनक प्रतिभा थी। उन्होंने प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य चाहे जिस अवस्था में रह रहा हो, उससे वह तालमेल बिठाकर भी अपने को प्रतिष्ठित कर सकता है यदि उसमें उस प्रकार की प्रबल प्रेरणा हो। 1994 में लिए गए इस साक्षात्कार के समय उनकी उम्र पचासी वर्ष की थी। अब वे दिवंगत हो चुकी हैं, किंतु वे अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से हमेशा उपस्थित रहेंगी। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत का हिन्दी अनुवाद, जिसे डॉ. रामशंकर द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'प्रेम बिना शिल्प कहां' से लिया गया है।
आप साहित्य के क्षेत्र में किस प्रेरणा से आईं?
मेरा घर खूब रूढ़िवादी था। लड़कियों को स्कूल भेजने की परिपाटी नहीं थी। इसीलिए मुझे स्कूल जाने का सौभाग्य नहीं मिला। तो भी सदा पढ़ती रही। घर में वह पढ़ना हुआ केवल इस कहानी और उपन्यास साहित्य का। मेरी मां में थी घोर पुस्तक-प्रीति। मां के एक ओरथा समस्त घर संसार और दूसरी ओर था पुस्तक पढ़ना। इसीलिए घर में अनेक पुस्तकें आती रहती थीं। उस समय तक जितनी ग्रंथावलियां छपी थीं और उस समय जितनी पत्र-पत्रिकाएं निकल रही थीं वे प्रायः मेरे यहां सभी आती थीं। उसके अलावा तीन-तीन पुस्तकालयों से पुस्तकें और आतीं। मां का पुस्तक पढ़ना था, मानो कुम्भकर्ण की क्षुधा जैसा। इसीलिए पुस्तकें तो घर में सदा रहती थीं और बाहर से आती भी रहती थीं। और मेरे लिए भी स्कूल का झंझट नहीं था। न ही गणित करना था, न अंगरेजी पढ़नी थी और न भूगोल याद करने की झंझट थी। उन सब पुस्तकोंको हम तीन बहनें बचपन से ही बिना बिचारे पढ़ती आ रही थीं। पढ़ते-पढ़ते लिखने की इच्छा हुई। अर्थात इसी को यदि साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण कहा जाए तो कहा जा सकता है।
गल्प, उपन्यास लिखते समय क्या आप पहले ही सब कुछ सोच लेती हैं? प्रस्तुतिकरण के समय क्या प्रधानता पाता है- कहानी, घटना अथवा चरित्र?
मैं पहले चरित्रों पर ही प्रधान रूप से विचार करती हूं। उसके बाद चरित्रों के ही परिप्रेक्ष्य में एक-एक कर घटनाओं को सजाने का प्रयास करती हूं। कई बार चरित्रों को ठीक रखने के लिए घटनाएं कल्पना के बाहर भी चली जाती हैं। अर्थात अपने मन के अनुसार रखने केलिए। कई बार जिन घटनाओं को सोचा था उनमें अधिकांश बदल जाती हैं। कई बार सोचती हूं चरित्रों की नियंता मैं नहीं हूंं। वे अपनी इच्छानुसार अपने निजी पथ पर ही चलते जाते हैं।
इतने प्रकार के चरित्रों को आप कहानी और उपन्यास जगत में खींच लाई हैं। इन्हें आप जान कैसे सकी हैं?
यह कहना कठिन है। कारण, मैं सदा घर की चहारदीवारी में बंद रही। मेरा संसार तो खिड़की से होकर देखा हुआ संसार है। एक तो मैं खूब रूढ़िवादी घर की लड़की हूं उससे भी अधिक एक रूढ़िवादी परिवार की बहू हूं। चालीस वर्ष की उम्र तक कोई यह नहीं जानता था कि असल में आशापूर्णा देवी नाम की लेखिका हैं कौन? वह किसी पुरुष लेखक का छद्म नाम तो नहीं है? बाद में जब बाहर के संसार में जा पड़ी और सबके साथ मिलना-जुलना हुआ तब कई लोगों ने कहा- ये जैसे प्रेमेनदा, सजनी कांत दास हैं- हम लोग सोचने थे इन्हीं में से किसी का यह छद्म नाम लगता है। इन्हीं में से किसी पुरुष लेखक की ये खांटी रचनाएं हैं।
इतनी शक्तिशाली रचनाएं। उस दिन अवश्य मैंने खूब सुनाईं। बोली- 'सोचती हूं वैसी शक्तिशाली रचना पुरुष को छोड़कर और किसी के द्वारा लिखी ही नहीं जा सकतीं।' उस समय तक भला-बुरा समझनेकी उम्र हो चुकी थी। साहस बढ़ चुका था। तो भी उनकी उस तरह की धारणा का कारण शायद यह रहा है कि इससे पहले मैं जो लिखती थी उसका 'मैं' एक पुरुष का 'मैं' था। अर्थात उस समय मानो पुरुष की दृष्टि से ही मैं संसार को देख रही थी।
क्या आप आत्मकथा नहीं लिखेंगी?
आत्मकथा लिखने योग्य कोई घटना नहीं है मेरे जीवन में। इतने साधारण जीवन से आत्मकथा लिखी जा सकती है ऐसा मैं नहीं सोचती। हम लोग आठ भाई-बहन थे। अत्यंत साधारण जीवन था। दादा (बड़े भाई) ने लिखना-पढ़ना सिखाया। हमारे यहां बारह वर्ष की उम्र से हम लड़कियों का घर से बाहर जाना बंद होने का कड़ा नियम था। मां बोली- 'इस बार पूजा देखने जा रही हो देख आओ। अगले वर्ष नहीं जा सकोगी। अब बड़ी हो गई हो।' सोचकर देखती हूं कि यदि मैं खूब गरीब घर की लड़की होती अथवा किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति की लड़की होती तोक्या लिखने के इतने उपादान पा पाती? तो भी मैंने एक उपन्यास लिखा है 'दृश्य से दृश्यांतर'। इसमें मेरे जीवन की कुछ छाप विद्यमान है। फिर भी सब जगह मैं नहीं हूं वरन यह कहा जा सकता है कि 'दृश्य से दृश्यांतर' एक बार ही मेरे परिवेश और मेरे काल की पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ एक उपन्यास है।
विदेशी साहित्य आपको कैसा लगता है? हमारे समाज के साथ उसका क्या सादृश्य है?
मेरी विद्या की दौड़ तो केवल मातृभाषा तक ही सीमित है। इसीलिए बांग्ला भाषा में अनुवादों के माध्यम का सहारा लेकर आलोचना करने से काम चल जाएगा, ऐसा मैं नहीं सोचती। तो भी जो मिल जाता है उसे आग्रहपूर्वक पढ़ती हूं और पढ़ते-पढ़ते सोचती हूं परिवेश, देशकाल, पात्र जैसे जो भी हों किंतु मनुष्य भीतर से सभी एक जैसे हैं। इस देश में भी उस महाभारत युग से लेकर आज तक मनुष्य का मूल चरित्र बदला नहीं है। युग-परिप्रेक्ष्य से तो बाह्य रूप में आकाश-पाताल का अंतर आ गया है किंतु आंतरिक ढांचे की गठन एक जैसी ही है। आवहमान काल समाज जीवन को ठेलकर ले गया है- बल के मोह और भूमि, स्वर्ण, नारी और सुरा की आसक्ति की ओर।
कारण, किसी भी काल में समाज संपूर्ण रूप से दुर्नीति से मुक्त नहीं हो सका है। आज भी नहीं हो पा रहा है। और इस पृथ्वी के समाज-जीवन के बनने-बिगड़ने मेंनारी की भूमिका बहुत ही कम है। बड़ा जोर लगाकर कभी वह प्रेमिका बनकर संशय का बीज बोती है, कभी गुप्तचरी करके किसी संकट की सृष्टि करती है। कुछ समय के लिए कुछ उत्थान-पतन घट जाता है- बस यहीं तक सीमित है उसकी भूमिका। यहां तक कि मां का प्रभाव बच्चे के जीवन पर भी एक विशेष उम्र तक ही रहता है। उसके बाद वह या तो 'स्वेच्छाचारी' हो जाता है अथवा 'आत्मनियंत्रित' क्योंकि सब देशों का समाज सदा से पुरुष-शासित ही रहा है।