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रेणु : सजनवा बैरी हो गए हमार

4 मार्च : जयंती विशेष

हमें फॉलो करें रेणु : सजनवा बैरी हो गए हमार
-राजदीप गुप्ता
फणीश्वरनाथ रेणु साहित्य जगत के संवेदनशील हस्ताक्षर हैं। जब तक वे संसार में रहे अपनी लेखनी को निरंतर चमकदार बनाए रखा। यहाँ पेश है उनके जीवन के अनजाने पहलुओं पर उनकी पत्नी लतिका रेणु से की गई मुलाकात :

पटना-राजेंद्रनगर स्थित ब्लॉक नं. दो, कमरा नं. तीस, यह वही फ्लैट है जिसे फणीश्वरनारेणु ने लीज पर सरकार से लिया था। कुछ वर्ष पहले। तीसरे तले पर दो छोटे कमरे- न बच्चे न कोई घरेलू सेवक। चारों तरफ स्वच्छता, सुव्यवस्था। रेणुजी की पत्नी श्रीमती लतिका रेणु स्थानीय राममोहन राय में शिक्षिका के कार्य पर नियुक्त। ग्रेजुएशन, बीएड सब विवाह के बाद ही किया। इसके पूर्व सरकारी अस्पताल में परिचारिका-उसी समय रेणुजी से संबंध-और विवाह।

नाश्ते के बाद मैंने पूछा -'मैला आँचल' रेणुजी की बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है, आप यह बताएँ कि वह कब लिखी गई थी।'

'मैला आँचल' वर्षों पहले से ही लिख रहे थे। रात्रि 10 बजे के बाद ही लिखना शुरू करते थे। पूछने पर बताते, एक अंचल को ध्यान में रखकर ही इसकी रचना कर रहा हूँ। सारी घटनाओं का मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। पुस्तक पटना के ही एक प्रकाशन समता प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी-अखबारी कागज पर-उस समय उसका मूल्य पाँच रुपए था। पुस्तक की मात्र दो सौ प्रतियाँ ही छपी थीं। पुस्तक की बिक्री के लिए प्रकाशक की कोई रुचि नहीं थी-पुस्तकें यूँ ही पड़ी थीं। कहीं से कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आ रही थी। रेणुजी जब भी प्रकाशक से रुपयों के लिए कहते प्रकाशक सीधा और सपाट उत्तर देता-किताबें ज्यों की त्यों धरी हैं। बिकें तब तो दूँ।

रेणु मायूस लौट आते। मैला आँचल को लेकर रेणु बेहद परेशान थे। उन्हीं दिनों राजकमल प्रकाशन के श्री ओमप्रकाश पटना आए थे। उन्होंने शायद पुस्तक की समीक्षा जो नलिन विलोचन शर्मा ने लिखी थी-उसे पढ़ा था। रेणु को प्रेमचंद के बाद उपन्यास के क्षेत्र में नया हस्ताक्षर बताया था राधाकृष्णजी लतिकाजी से मिले और रेणु को मुलाकात के लिए भेज देने को कहा। रेणु के आने पर मैंने यह सूचना उन्हें दी-बड़े खुश हुए और कहा लतिका अब कुछ चमत्कार होने वाला है। वे ओमप्रकाशजी से मिलने चले गए।

लौटकर उन्होंने बताया अब मैला आँचल राजकमल प्रकाशन से छपेगा, सारी बातें हो गई हैं। दूसरे ही दिन समता प्रकाशन में जो प्रतियाँ बची थीं, उसे भी ओमप्रकाशजी अपने साथ ले गए। राजकमल से पुस्तक प्रकाशित हुई। इस उपलक्ष्य में ओमप्रकाशजी ने दिल्ली में एक भव्य पार्टी का आयोजन भी किया था। रेणु भी उसमें गए थे।

मैंने पूछा-'रेणुजी कब और कैसे लिखते थे?'

'रात में 10-11 बजे के बाद ही लिखते थे-सुबह तक। मेज कुर्सी पर नहीं लिखते थे-पूरा बिस्तर लगाकर, डबल तकिया ऊँचा करके आधा लेटकर लिखते थे। लिखने के वक्त खाने के लिए बुलाना मुश्किल था।'

'खाने में उन्हें क्या पसंद था?'

'खाने के मामले में काफी शौकीन थे। खिचड़ी, खस्सी का माँस, मछली, मछली में हिल्सा मछली ज्यादा पसंद करते थे-दाल में चना। खीर ताजा नहीं बासी पसंद थी। मीट से ज्यादा मुर्गा पसंद करते थे।'

एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया-'रात को मुर्गा लेकर आए-कहा मुर्गा और चावल बनाओ। खाना मैं बना चुकी थी। मैंने कहा रोटी बन गई है मुर्गा बना देती हूँ- उन्होंने कहा ठीक है। इत्मीनान से खाना खाया और सो गए।

अचानक आधी रात को उठकर जिस पतीली में बचा हुआ मुर्गा रखा था, उसे ऊपर से नीचे फेंक दिया। सुबह जब मुझे पता चला तो मैंने पूछा-ऐसा आपने क्यों किया? तुमने रात में चावल नहीं बनाया था, उसी बात का मुझे गुस्सा था- गुस्से में मैंने ऐसा कर दिया।'

'अंतिम समय में उनसे क्या बातचीत हुई?'

'कुछ भी नहीं। ऑपरेशन के पहले बोले-कोकाकोला मुझे पिला सकती हो?'

मैंने कहा-'डॉक्टर ने मना किया है।'

बोले-'छोड़ो, वे लोग तो मेरा पेट काट ही रहे हैं। ऑपरेशन थिएटर में जाते समय सभी साथियों को प्रणाम किया। रामकृष्ण परमहंसजी की तस्वीर को भी प्रणाम किया। शायद अपनी मृत्यु का पूर्वाभास उन्हें हो गया था। ऑपरेशन के बाद बेहोश ही रहे।'

लतिकाजी ने अपने संस्मरण में लिखा -अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से तैंतीस वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े एक मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। तब से लेकर 11 अप्रैल 1977 की साढ़े नौ बजे की रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंततः वह चला ही गया। दो कमरों के फ्लैट, दीवार पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान-पुस्तकें, पत्र, पत्रिकाएँ यही सब तो छोड़कर गए हैं रेणु। लेकिन एक रचनाकार के नाते रेणुजी जो कुछ भी छोड़कर गए हैं, वह अन्याय के विरुद्ध लड़ने की, संघर्षों से जूझते जाने की अदम्य जिजीविषा की अनवरत यात्रा है।

साभार-वागर्थ

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