स्वर्ग तुल्य होता है संस्कारवान परिवार...
						
		
						
				
संतानोत्पत्ति का रहस्य क्या है?
			
		          
	  
	
			
			  
	  
      
      
      
		
										
								
																	मनुष्य को आचार शास्त्र द्वारा सब तरह की ट्रेनिंग दी जाती है। माता, पिता और आचार्य बच्चे के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करते हैं, उसे शिक्षित और दीक्षित करते हैं। इसी प्रक्रिया में संस्कारवान परिवार परवरिश पाता है। 
अथर्व वेद का मंत्र कहता है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु सम्मनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शंतिवाम्।
इस मंत्र में शिक्षा दी गई है कि पुत्र को माता-पिता की सेवा करनी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। 
									
			
			 
 			
 
 			
					
			        							
								
																	 
									
										
								 
			
							 
										
								
																	 सृष्टि क्रम में संतानोत्पत्ति की व्यवस्था रखी गई है। इस संतानोत्पत्ति का रहस्य क्या है? यह संसार प्रभु ने केवल खेल के लिए नहीं बनाया। इस संसार में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन सत्ताएं हैं। इनमें ईश्वर तो सबका अधिष्ठाता, सर्वज्ञ, सर्वशक्ति संपन्न है, अतः पूर्ण होने से वह दोषरहित है, पूर्ण विकसित है, परंतु जीवात्मा सदोष है, अवनत भी है, अल्पज्ञ है और उसे विकास की दिशा में चलना है। वास्तव में जीव स्वतंत्र है और उसकी आवश्यकताएं भी हैं। परमेश्वर पूर्णकाम है, जीव पूर्णकाम नहीं है, उसे पूर्ण कामता या सुख या आनंद की आवश्यकता है। यह सृष्टि प्रभु ने जीव के विकास के लिए ही बनाई है।इस विषय को हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि दो तरह के जीव हैं एक मनुष्य और दूसरे अन्य सभी प्रकार के जीव। मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी भोगयोनि के प्राणी हैं अर्थात् उनमें बुद्धि इतनी कम है कि उसके आचार की व्यवस्था ईश्वर ने अपने साथ में रखी है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवों के जैसे भोग होते हैं उनके अनुसार उन्हें कर्म करने पड़ते हैं। 'कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़-चेतन का आधार।'  
									
											
							                     
							
							
			        							
								
																	
इस विषय को तनिक स्पष्ट करूं। उदाहरणार्थ - एक बिल्ली है। उसने अपने असमर्थ और प्यारे बच्चे के लिए कटोरी में मलाई रखी। बच्चा हाथ में लेकर उसे खाना चाहता है। बिल्ली झपटी और सारी मलाई छीन ले गई। वैसे तो एक असहाय, अबोध बच्चे के ऊपर बिल्ली का यह व्यवहार अत्याचार हुआ, परंतु बिल्ली के कर्मों की व्यवस्था, बुद्धि की कमी के कारण उस बिल्ली पर नहीं। इसलिए उसका यह कर्म उसे निंदनीय ठहराने के लिए उपयुक्त नहीं होगा। 
दूसरा उदाहरण देखे तो- एक बुढ़िया बड़ी कठिनाई से रोटी पका रही है। आंख में धुआं लग रहा है। अभी 4-5 रोटी बन चुकी हैं और इतने में ऊपर से एक बंदर आया और उसकी रोटियां मुख में दबाकर चला गया। यह बंदर के लिए पाप कर्म नहीं है? इसका दंड उसे नहीं भुगतना पड़ेगा। इस भोग योनि के प्राणियों में वृद्धि के कमी के कारण उनके आचार की व्यवस्था ईश्वर ने सीधी अपने हाथों में रखी है।
जैसे बहुत छोटे बालकों पर बुद्धिमान पिता उनकी व्यवस्था का भार नहीं छोड़ता। हां, विद्वान और परिपक्व संतान अपना विधान अपने आप बनाने में स्वतंत्र है। आपने कभी किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में बया पक्षी को घोंसला बनाने के लिए शिक्षा प्राप्त करते न देखा होगा, परंतु कितनी उच्च कला और कारीगरी बिना सीखे उसे प्राप्त है। मधुमक्खी के छत्ते में कितनी कुशलता दिखाई देती है, परंतु क्या उसे किसी विद्यालय में इसकी ट्रेनिंग दी गई है। 
चींटियां कितनी परिश्रमी और समझदार होती हैं, परंतु क्या उन्हें वेद की ऋचाओं और गीत के उपदेशों से शिक्षित किया गया है? परंतु मनुष्य को आचार शास्त्र द्वारा सब ट्रेनिंग दी जाती है। माता, पिता और आचार्य बच्चे के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करते हैं, उसे शिक्षित और दीक्षित करते हैं।