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गर्मियों की छुट्‍टियाँ और मेरे चित्र

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इरशाद कप्तान

हमारी गर्मियों की छुट्टियों में हम खूब उछलकूद करते थे। परीक्षा के दिनों से ही मैं छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करने लग जाता था। इंतजार के कई कारण थे। एक तो यह कि छुट्टियाँ आते ही मुझे पढ़ाई से छुटकारा मिल जाता था। खेलने-कूदने से कोई मना नहीं करता था और मुझे चित्र बनाने के मेरे सबसे पसंदीदा काम से भी कोई नहीं रोकता था। पर सबसे बड़ा कारण यह था कि छुट्टियों में ही मेरे सारे दोस्त मेरे साथ धमा-चौकड़ी करने को तैयार मिलते थे।

मेरे कई दोस्त थे। टीटू, नीटू, टिंकू, पाली, सचिन, बंटी, मनोज, गोपाल और संदीप। अभी इतने ही नाम याद आ रहे हैं। दोस्तों के ये नाम भी मुझे अच्छे लगते थे। टीटू, नीटू, टिंकू और पाली के नाम मेरे लिए आकर्षक थे। इनमें से पाली का नाम मुझे बड़ा अजीब भी लगता था, क्योंकि हमारी छत पर भी पाली होती थी और मुझे लगता था उसी से इसका नाम पाली रखा गया है। आज तक मुझे इसका कोई जवाब नहीं मिला। खैर जाने दो...।

हम आगे की बात करते हैं। छुट्टियों में हमारे कई प्लान हुआ करते थे। इनमें से एक प्रमुख प्लान था- रोज सुबह-सुबह उठकर दौड़ लगाना, कसरत करना और बॉडी बनाना। हम रोज सुबह जल्दी उठ जाते थे। उस वक्त हल्का नीला आकाश और कुछ तारे दिखाई देते थे। कुछ घरों के बाहर जलते बल्ब भी दिखाई देते थे।

हमारे घर के पास ही एक तालाब था और हम उसके आसपास ही दौड़ लगाते थे। कई बार गली के कुछ कुत्ते भी हमारे साथ-साथ दौड़ लगाने आ जाते थे। तालाब के किनारे हम दौड़ लगाने के बाद कसरत करते और सोचते कि हमारी बॉडी बन रही है और अब कुछ ‍ही दिनों में हम पहलवान जैसे दिखने लगेंगे। उन दिनों लंबा होने की बात भी पता नहीं कहाँ से दिमाग में घुस आई थी तो पेड़ों पर भी खूब लटकते थे कि इससे लंबाई बढ़ जाएगी।

उन दिनों मैं अपने मोहल्ले का चित्रकार था। मिक्की माउस, डोनाल्ड डक, टॉम एंड जैसी और ऐसी ही किताबों से देखकर कार्टून बनाता था। धीरे-धीरे मेरे दोस्तों को भी चित्र बनाने में मजा आने लगा था। हम सब इकट्‍ठा चित्र बनाते थे। मैं, पाली, टीटू और संदीप अच्छे चित्र बना लेते थे। जब हमारे चित्र बन जाते तो हम मेरे घर के आगे वाले कमरे में चित्रों की प्रदर्शनी लगाते थे। चित्रों को दीवारों पर टेप से चिपकाते, कुर्सियों और पलंग पर भी चित्र बिछाकर रख देते।

प्रदर्शनी देखने के लिए हम कमरे में घुसने की 25 पैसे फीस लेते थे। प्रदर्शनी लगते ही कमरे का दरवाजा लगा देते थे। अंदर की लाइट भी बंद कर देते थे। जब भी कोई फीस देकर कमरे के अंदर आता तो फिर उसे लाइट जलाकर चित्र दिखाते। इंट्री फीस से जो पैसे मिले थे वे कुल्फी खाने में खर्च हो जाते थे। हमारी मेहनत की यह बड़ी कमाई थी जिससे हम छोटी-सी कुल्फी खाते थे।

धीरे-धीरे सबने चित्र बनाना छोड़ दिया। मेरे साथ अच्‍छे मित्र बनाने वाले दोस्त अब बड़े हो गए थे। अब वे सभी पढ़ाई में ज्यादा ध्यान देने लगे थे। बस मैं ही बच्चा रह गया जो चित्र बनाता था और आज भी बना रहा हूँ।

(लेखक 'नईदुनिया' में कार्टूनिस्ट हैं।)

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