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पं. हरिप्रसाद चौरसिया के बारे में

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देश के जाने-माने बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का नाम तो तुमने सुना ही होगा। कुछेक ने उन्हें प्रस्तुति देते भी सुना हो? उनसे कई कार्यक्रमों में भेंट होती रही है और यह सुखद आश्चर्य रहा कि देश के इतने बड़े कलाकार मुझसे एक मित्र और सखा के रूप में मिलते रहे हैं। वे जब भी मुझसे मिले, मुझे सम्मान देकर बात की। तो मन में उनके प्रति आदर अपने आप बन गया। उनसे बातचीत करते हुए या मिलते हुए कभी भी ऐसा नहीं लगा कि आप किसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कलाकार से बतिया रहे हैं।

पंडितजी की सबसे बड़ी विशेषता है बहुत सादा जीवन और व्यवहार। इंदौर वे कई बार आते रहे। उनके साथ कई मुलाकातें हुई हैं। कई बार उन्हें सुनने और जानने का मौका लगा है। उन्हें पान, जलेबी और भारतीय व्यंजनों का अच्छा खासा चाव है। बाँसुरी के बाद पान ही शायद उनकी प्रिय चीज है। भई बनारसी जो ठहरे, तो पान तो कमजोरी होगी ही।

एक बार तो ऐसा हुआ कि उनकी प्रस्तुति थी रात को नौ बजे और तकरीबन आठ बजे उनका हवाई जहाज इंदौर के एअरपोर्ट पर उतरा। मैं उन्हें लेने गया था। उन्होंने मुझसे पूछा कि उन्हें कितनी बजे अपना वादन शुरू करना है तो मैंने उन्हें बताया कि अबसे बस एक घंटा बाद। तो कहने लगे कि फिर ऐसा करिए कि सीधे कार्यक्रम स्थल पर चलिए। मैं उनके कहे अनुसार उन्हें सभागार पर ले आया तब तक ८.४५ बज चुके थे। पंडितजी सीधे ग्रीन रूम पहुँचे, अपना बैग खोला, एक कुर्ता निकाला और बस तैयार अपने वादन के लिए। नौ बजे सीधे स्टेज पर। उस रात पंडितजी का वादन अभूतपूर्व था। रात को बारह बजे तक उनका वादन चलता रहा और खाना खाने के बाद सोते-सोते रात को दो बज गए।

दूसरे दिन सुबह उन्हें फिर मुंबई की फ्लाइट पकड़ना थी क्योंकि उसी शाम फ्रांस दूतावास में उन्हें प्रस्तुति देनी थी। मैं सुबह पाँच बजे उन्हें लेने होटल पहुँचा तो देखा पंडितजी स्नान आदि से निवृत्त होकर अपना चिर-परिचित तिलक लगाए तैयार हैं। कार में बैठते ही कहने लगे भैया सराफे की बड़ी जलेबी की दुकान खुल गई होगी क्या? मैंने कहा हाँ शायद। तो उधर से ही कार ले चलो। हम सराफा पहुँचे। रास्ते के लिए जलेबियाँ बँधवाई और पंडितजी ने बड़ा रस लेकर जलेबियों का आनंद लिया।

इस किस्से से एक खास बात तुमसे शेयर करना चाहता हूँ। वह यह कि कोई कलाकार तब कामयाब होता है जब वह समय के महत्व को समझता हो। सोचो यदि रात को पंडितजी एअरपोर्ट से होटल जाकर कुर्ता बदलते तो कार्यक्रम में कितना विलम्ब होता। अपने प्रिय कलाकार को देरी से आता देख उनके संगीतप्रेमियों और चाहने वालों को कितनी असुविधा होती। कामयाब होने का मतलब यह नहीं कि आप अपने हिसाब से दुनिया को चलाएँ, आप दुनिया के हिसाब से चलें तो सफलता आपके कदम चूमेगी।

  पं.हरिप्रसाद चौरसिया का बचपन गंगा किनारे बनारस या वाराणसी में बीता। उनकी शुरुआत तबलावादक के रूप में हुई। इसका फायदा यह हुआ कि आज भी बाँसुरी वादन करते समय उनकी लयकारी या रिदम बहुत ही अनूठी और विलक्षण होती है।      
दूसरी बात लंबी यात्रा के बाद देर रात तक वादन की थकान के बावजूद फिर तरोताजा हो जाना और अगले गंतव्य के लिए अपने आप को तैयार कर लेना। ऐसा नहीं कि अब एक कार्यक्रम हो गया है तो आपको मंजिल मिल गई। मैंने पंडितजी से कई बार उनकी ताजगी का राज पूछा तो उन्होंने बताया कि किशोर और युवावस्था में वे अखाड़े में जाकर अच्छी खासी वर्जिश किया करते थे, वह आज तक काम आ रहा है। उन्होंने ये भी बताया कि उनका वाद्य फूँक से बजता है और इससे साँस को काफी व्यायाम मिलता है जो एक तरह से पूर्ण प्राणायाम होता है।

पं.हरिप्रसाद चौरसिया दुनिया भर में अपने बाँसुरी वादन के लिए आज भी घूमते हैं लेकिन अपनी सरलता से सबका मन मोह लेते हैं। मैंने भी उन्हें एक महान कलाकार के रूप में ऐसा ही जाना और हो सकता है यह भी उनकी प्रसिद्धि का एक बड़ा कारण हो। किसी ने कहा भी तो है ना कि सरल होना बहुत कठिन काम है।

रंग बरसे भीगे चुनर वाली
पं.हरिप्रसाद चौरसिया का बचपन गंगा किनारे बनारस या वाराणसी में बीता। उनकी शुरुआत तबलावादक के रूप में हुई। इसका फायदा यह हुआ कि आज भी बाँसुरी वादन करते समय उनकी लयकारी या रिदम बहुत ही अनूठी और विलक्षण होती है। बाद में वे बाँसुरी की ओर आकृष्ट हुए और बस उसे ही जीवन सौंप दिया।

बनारस के पं. भोलानाथजी और बाद में मैहर घराने की विदुषी अन्नपूर्णा देवी जैसे महान गुरुओं से पंडितजी को बाँसुरी वादन की बारीकियाँ सीखने का सौभाग्य मिला। बाद के सालों में उन्होंने अपने प्रिय सखा और देश के जाने-माने संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा के साथ शिव-हरि के नाम से फिल्म सिलसिला, डर और चाँदनी में संगीत निर्देशन भी किया। तुम्हें सिलसिला का वह गीत तो याद ही होगा न - "रंग बरसे भीगे चुनर वाली", यह गीत शिव-हरि की जोड़ी ने ही कम्पोज किया है।

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