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लखनऊ का 'शाही मोहर्रम'

- सुहेल वहीद एवं ओम तिवारी

हमें फॉलो करें लखनऊ का 'शाही मोहर्रम'
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यूँ तो मोहर्रम पूरी दुनिया में मनाया जाता है लेकिन लखनऊ का मोहर्रम कुछ खास होता है क्योंकि अवध के शिया शहंशाह और नवाबों ने 1838 में इसकी शुरुआत की थी इसलिए यहाँ के मोहर्रम शाही मोहर्रम हो गए। ईरान और इराक जैसे शिया-बहुल देशों में भी मोहर्रम के इतने इंतजाम नहीं होते जितने लखनऊ में किए जाते हैं। लखनऊ के मोहर्रम की शाही परंपराओं को बनाए रखने के लिए हर साल करीब 30 लाख रुपए हुसैनाबाद ट्रस्ट खर्च करता है।

आज भी हर साल बिल्कुल उसी तरह से जुलूस तैयार कर निकाला जाता है जैसा अवध के पहले राजा मोहम्मद अली शाह बहादुर (1838) के जमाने में निकला था। उसी तरह के गाजे-बाजे, मातमी धुन बजाते बैंड, हाथी, नौबत, शहनाई, नक्कारे, सबील, झंडियाँ, प्यादे और सबसे खास चीज माहे मरातिब यानी मछली, और शमशीर (तलवार) के साथ निकलता है यह जुलूस।

उत्तर प्रदेश पुलिस का बैंड भी इसमें शामिल होता है और लखनऊ की मशहूर अंजुमनें इसमें मर्सिया पढ़ती हैं। आसिफी इमामबाड़े से पहली मोहर्रम को उठने वाला यह शाही जुलूस छोटे इमामबाड़े तक का करीब सवा किलोमीटर का सफर चार घंटे में तय करता है। इस शाही जुलूस का आकर्षण शाही जरीह है। जरीह का मतलब है हजरत अली के मजार का प्रतिरूप। इस बार पहली मोहर्रम के लिए आठ कारीगरों ने तीन महीनों में मोम की शाही जरीह तैयार की है। इसकी लागत एक लाख रुपए आई है।

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बीस फुट ऊँची और दस फुट चौड़ी इस जरीह का वजन 570 किलो है। इसके अलावा अभ्रक की भी एक 15 फुट ऊँची जरीह तैयार की गई है। इस तरह होती है लखनऊ में मोहर्रम की शुरुआत। पहली मोहर्रम से सोजख्वानी और मर्सियाख्वानी का शुरू होने वाला सिलसिला चार महीनों तक चलता है। इतनी लंबी मुद्दत तक मोहर्रम सिर्फ लखनऊ में ही मनाए जाते हैं। ईरान और इराक में तो दस दिन तक ही मोहर्रम की गमी मनाई जाती है। 'जिसको न दे मौला-उसको दे आसिफुद्दौला' के तौर पर विख्यात नवाब आसिफुद्दौला ने मोहर्रम का सिलसिला इसलिए लंबा किया कि इससे उन्हें गरीबों को खाना बांटने का बहाना मिल गया।

मोहर्रम की छह तारीख आसिफी इमामबाड़े में रात में होने वाले आग के मातम में हिंदू और सुन्नी बराबर से शरीक होते हैं। इस मातम में लोग छोटे-छोटे बच्चों तक को लेकर मातम करते हैं। आठ मोहर्रम को मशालों वाला मातमी जुलूस निकाला जाता है।

इसकी खास बात है, इसमें 'या सकीना या अब्बास' के नारों के साथ छाती पीटकर इस तरह मातम किया जाना कि एक रिद्म पैदा हो जाती है। सात मोहर्रम को मेहंदी उठती है। यह भी लखनऊ की खासियत मानी जाती है। फिर नौ मोहर्रम को नाजिम साहब के इमामबाड़े से अलम उठता है। इसमें दूर-दूर से लोग शरीक होने आते हैं। फिर आता है दस मोहर्रम। इसी दिन कर्बला (इराक) में इमाम हुसैन का उनके 72 साथियों के साथ कत्ल कर दिया गया था। दुनिया भर के मुसलमान उन्हें इस दिन श्रद्धांजलि देते हैं। शिया मुसलमान गमी मनाते हुए मजलिस-मातम करते हैं और ताजिया निकालते हैं।

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ताजिया दरअसल हजरत इमाम हुसैन की रोजे मुबारक (मजार) का प्रतिरूप है। लखनऊ में दस मोहर्रम को 'मजलिसे शामे गरीबाँ' का आयोजन इमामबाड़ा गुफराने माब में किया जाता है। इसका प्रसारण रेडियो और दूरदर्शन से होता है। पूरी दुनिया में यौमे आशूर की रात में पढ़ी जाने वाली यह एकमात्र मजलिस है। इसमें इमाम हुसैन की हत्या के बाद के मंजर बयान किए जाते हैं।

इसकी शुरुआत मशहूर शिया धर्मगुरु कल्बे सादिक के पिता मौलाना हुसैन उर्फ कब्बन साहब ने 1920 में की थी। बाद में इसी तर्ज पर 'शामे गरीबाँ' की मजलिस पाकिस्तान में होने लगी। काफी समय तक लखनऊ के जाकिरों ने वहाँ जाकर यह मजलिस पढ़ी। कई दूसरे देशों ने भी 'मजलिसे शामे गरीबाँ' की परिकल्पना लखनऊ से ही ली।

लखनऊ के बशीरत गंज में किशनू खलीफा का इमामबाड़ा है जिसमें उनके पोते धनुक अब भी मोहर्रम भर मजलिस मातम करते हैं। महानगर में फूल कटोरा कर्बला है जहाँ सुन्नी मुसलमान मोहर्रम मनाते हैं। तालकटोरा कर्बला में अब भी दस मोहर्रम को ताजिए दफन करने से पहले छोटे बच्चों को कुछ देर के लिए लिटाने का प्रचलन है।

अवध के पहले राजा मोहम्मद अली शाह बहादुर के ननिहाली वंशज नवाब जाफर मीर अब्दुल्लाह कहते हैं कि ऐसे मिसाली मोहर्रम दुनिया में कहीं भी नहीं होते। वह बताते हैं कि चौक में तो लगभग हर हिंदू घर में पहले ताजिया रखा जाता था। अब भी ज्यादातर पुराने हिंदू घरों में ताजिएदारी होती है और मिन्नती ताजिएदारी का रिवाज भी है ।

1971 में मोहर्रम में लखनऊ के पाटेनाले से शुरू हुए शिया-सुन्नी दंगे ने दशकों की सद्भाव की परंपरा पर बदनुमा दाग लगा दिया। दर्जनों लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति तबाह हुई। उसके बाद से तो दंगों की भी परंपरा बन गई। जब-तब दंगा होने लगा और लखनऊ के मोहर्रम की एक यह भी पहचान बन गई।

प्रशासन ने शिया अजादारी पर पाबंदी लगा दी। जुलूस बंद हो गए। यह पाबंदी 1999-2000 में खत्म हुई। बताते हैं कि झगड़े की बुनियाद 1936 में एक सुन्नी वहाबी मौलाना अब्दुशशकूर की बयानबाजी से पड़ी जिन्होंने ताजिएदारी को गलत बताया। तभी शियों ने तबर्रा शुरू किया तो सुन्नी मुसलमानों ने जवाब में मदहे सहाबा शुरू कर दिया।

लखनऊ की तरह ही बुंदेलखंड में भी मुहर्रम की शानदार परंपरा है। अभावग्रस्त जीवन के लिए विख्यात बुंदेलखंड में सांप्रदायिकता समाज को कभी बाँट नहीं पाई। शायद भूख हावी रही और सामाजिक सौहार्द का ताना-बाना नहीं बिखरा। चाहे बाबरी मस्जिद विध्वंस हो या फिर देश का बंटवारा, बुंदेलखंड में कभी हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं हुए। मोहर्रम का भी इस सौहार्द को बनाए रखने में बड़ा योगदान है।

मुल्क में कौमी एकता की मिसाल बने बुंदेलखंड के मोहर्रम की बुनियाद 259 साल पहले बाँदा शहर में तब पड़ी जब बुंदेलखंड के तत्कालीन शासक महाराजा छत्रसाल की मदद के लिए पूना से पेशवाओं के साथ आए मराठी परिवार ने इमामबाड़ा स्थापित कर मोहर्रम में अलाव खेलने से लेकर ढाल-सवारी उठाना शुरू किया।

रामा की पांचवीं पीढ़ी के वंशज यशवंत राव बताते हैं, 'वे मारवाड़ी क्षत्रिय हैं। उनका परिवार पेशवाओं के साथ आया था। गदर के समय बाँदा के नवाबों ने यहाँ से रूखसती की तो पेशवा भी वापस पूना चले गए पर उनका परिवार यहीं का होकर रह गया।

इमामबाड़े की आज भी शोभा बढ़ा रही ऐतिहासिक ढाल को रामा के बाद काफी समय तक उनका भानजा उठाता रहा। उनके बाद दादा और फिर पिता बसंतराव ने और अब वह खुद ढाल उठाते हैं ।' रामा के इमामबाड़े में मौजूद रसूल खां बताते हैं कि यहाँ हिंदू-मुसलमान मोहर्रम के दरम्यान अलम, ढाल सवारी, अलाव और ताजिएदारी में बराबरी से शिरकत करते हैं।

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