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होलकर रियास‍त का मुहर्रम

महाराजा हाथी पर बैठकर निकलते थे ताजिया देखने...

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हमें फॉलो करें मुहर्रम पर्व
- डॉ. स्वरूप वाजपेयी
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स्वतंत्रता पूर्व और बाद में भी भारत में सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने पर्व व त्योहार उल्लासपूर्ण ढंग से मनाने की स्वतंत्रता रही है। पहले थीं रियासतें, जिनके शासक विभिन्ना धर्मावलंबियों के ऐसे आयोजनों में स्वयं शामिल होकर उनका उत्साहवर्धन करते थे।

इंदौर की होलकर रियासत भी ऐसी ही थी। श्रीमंत मुहर्रम के ताजिए के जुलूस का अवलोकन अलग से अपने लवाजमे के साथ हाथी पर बैठकर करते थे। महाराजा कर्बला पहुंचते व ताजिए की एक प्रदक्षिणा करके अपने गले से सैली निकालकर ताजिए को अर्पण करते थे।

चूंकि मुहर्रम इस्लाम के अनुयायियों का एक प्रमुख पर्व होता है, इसलिए इसे होलकर रियासत में बड़े पैमाने पर मनाया जाता था। चांद रात के रोज चंद्र दर्शन होते ही शहर काजी व फकीर एक लकड़ी का चौरंग सजाते, इस सजे हुए चौरंग को सर पर रखकर इसे इमामबाड़े से नजरबाग (जबरेश्वर महादेव के पीछे था यह नजरबाग) ले जाया जाता था। वहां फकीर फातिहा पढ़ता था, प्रसाद के रूप में बतासे बांटे जाते और फिर उस चौरंग को इमामबाड़े में लाकर ताजिए के सामने रखा जाता था।

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चांद रात से लेकर कत्ल की रात तक इमामबाड़े पर रोज वाजंत्री बजती थी। दो पहरेदार पहरा देते थे। पांचवें दिन फौज के लोगों को फकीरी दी जाती थी। सातवें व आठवें दिन एक रंगीन बांस के ऊपरी सिरे पर एक कमानीदार आड़ा बांस बांधकर उसके दोनों सिरे पर खुली तलवारें लटकती रख कर अलम निकाला जाता था।

सातवें दिन चालीस किलो आटे की रोटियां तैयार कर उन्हें फकीर व हकदार लोगों में बांटा जाता था। आठवें दिन गुड का शरबत पिलाया जाता था। कत्ल की रात नौवें दिन होती थी। इस दिन नियुक्त की गई कमेटी के अफसरान इमामबाड़े आते व ताजिए की सात मंजिले एक के ऊपर एक रखकर उसे मजबूती से बंधवाते थे। ताजिए को उठाने के लिए प्रत्येक बल्ली पर नौ-नौ सरकारी कर्मचारी रहते थे। रात 10 बजे बाद सरगती के लिए लवाजमा जुलूस की शक्ल में राजबाड़े के पीछे डेवड़ी की ओर से घूमते हुए यशवंत रोड होते हुए पीपली बाजार राजोपाध्याय के घर से गुजरता हुआ पुनः इमामबाड़े आता था।

दसवें दिन शाम कर्बला में विसर्जन के लिए इसे पूरे शाही लवाजमे के साथ ले जाया जाता था। ताजिया सर्वप्रथम राजबाड़ा आकर दो प्रदक्षिणा करता व उसके बाद आड़ा बाजार, पंढरीनाथ, हरसिद्धि होते हुए कर्बला पहुंचता था। तीसरे दिन तीजे का कार्यक्रम होता था। इस दिन ताजिऐ के फकीर व हकदार लोगों को इमामबाड़े पर खाना दिया जाता था, जिसमें केसरिया मीठा चावल विशेष रूप से बनाया जाता था। शाम को इन्हें इनाम दिया जाता था।

तेरहवें दिन अधिकारी व कर्मचारी कर्बला जाते व ताजिए की एक मंजिल खोलकर उसे नदी में प्रवाहित करते थे (तब नदी में पानी था)। अन्य सामग्री इमामबाड़े में लाकर रखते थे व उसे बंद कर दिया जाता था।

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