अनुपम मिश्र
हम लोग अपने स्कूलों में अक्सर किताबों में देशप्रेम, संविधान, भूगोल जैसे विषय पढ़ते हैं। कुछ समझते हैं और कुछ-कुछ रटते भी हैं, क्योंकि हमें परीक्षा में इन बातों के बारे में कुछ लिखना ही होता है।
लेकिन, मुझे लगता है कि असली देशप्रेम अपने घर, अपने मोहल्ले और शहर भूगोल को समझने से शुरू होता है। हम जिस शहर में रहते हैं, उसमें कौन-सा पहाड़ या कौन-सी छोटी या बड़ी नदी है, कितने तालाब हैं? हमारे घर का पानी कहाँ से, कितनी दूर से आता है? क्या यह किसी और का हिस्सा छीनकर हमको दिया जा रहा है, क्या हमने अपने हिस्से का पानी पिछले दौर में खो दिया है, बरबाद हो जाने दिया है- ये सब प्रश्न हमारे मन में आज नहीं तो कल जरूर आने चाहिए।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक, भुज से लेकर त्रिपुरा तक इस देश में कोई १४ बड़ी नदियों का ढाँचा प्रकृति ने बनाया है। इन १४ बड़ी नदियों में सैकड़ों सहायक नदियाँ और उन सहायक नदियों की भी सहायक नदियाँ मिलती हैं। देश में एक दौर ऐसा आया कि हमारे बड़े लोगों ने नदियों के पानी की चिंता करना छोड़ दिया और देखते-देखते आज हर छोटी-बड़ी नदी कचराघर की तरह बना दी गई है।
अपने घर में जिस घड़े में, फ्रिज में, बोतलों में पीने का पानी रखते हैं क्या उसमें हम कचरा मिलाते हैं? हमारे बड़े लोगों ने बिना सोचे-समझे शुद्ध पानी देने वाली नदियों में शहरों से निकलने वाला कचरा, उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गंदगी मिला दी है।
कहने को सरकारों ने दिल्ली से लेकर हर राज्य में नदियों की सफाई के लिए बड़े अच्छे कानून बनाए हैं, लेकिन बात यह है कि इन्हें लागू नहीं किया जाता। नदियों पर इन्हें सजावटी तोरण की तरह टाँग देने से कुछ नहीं होगा। जब आज हमारे बड़े लोगों ने इनकी सफाई के लिए कुछ खास नहीं किया है तो क्या अब यह सब भारी जिम्मेदारी छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर होना चाहिए?
अभी तो मुझे लगता है कि हम सबको इसके बारे में सोचना, समझना, पढ़ना और लिखना चाहिए। हम अपने शहर से बहने वाली नदी, तालाब के बारे में जितना जान सकते हैं, उतनी कोशिश करना चाहिए। आज हमारा दिमाग इस सवाल पर थोड़ा-सा हो जाए तो हमारी नदियाँ और तालाब भी जरूर साफ हो सकेंगे।
ये बहुत कठिन काम नहीं है। पिछले वर्षों में राजस्थान के अलवर जिले में कोई ४० किमी लंबी अरवरी नाम की एक नदी देश की बाकी नदियों की तरह लगभग दम तोड़ चुकी थी, लेकिन फिर वहाँ पर तरुण भारत संघ ने अरवरी के दोनों किनारों पर बसे गाँव को संगठित किया। लोगों ने बड़े धीरज से चुपचाप नदी के दोनों किनारों की पहाड़ियों पर छोटे-छोटे कई तालाब बनाए। पहले वर्षा का जो पानी पहाड़ियों पर गिरकर सीधे नदी में बहकर दो दिन की बाढ़ और फिर सालभर का अकाल लाता था, अब वह बरसात पहले इन छोटे-छोटे तालाबों में रुकता है। इससे नदी में बाढ़ नहीं आती और इन तालाबों की रिसन से निकला पानी सालभर नदी को जीवन देता रहता है।
अब ऐसा ही प्रयोग इसी जिले में नंदुवाली नदी के साथ भी किया गया है। दूर केरल में भी जहाँ खूब पानी गिरता है, लेकिन नदियाँ सूख जाती हैं- वहाँ भी ऐसे ही प्रयोग एक नदी को पूरी तरह से हरा कर चुके हैं। इन नदियों पर लोगों ने बिना किसी बड़ी सरकारी योजना के अपना पसीना बहाया है और इसलिए आज इनमें पानी बह रहा है।