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बच्चों की संसद: छोटी उम्र, बड़े इरादे

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हमें फॉलो करें तमिलनाडु बाल संसद
16 या 17 साल की उम्र में जो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जैसी जिम्मेदारी उठा सकता है, वह जरूर बच्चों की संसद का सदस्य बन सकता है। यह बात है तमिलनाडु के एक गाँव की 'बाल संसद' की जो कई अहम काम कर रही है।

इस संसद का लक्ष्य यह है कि बच्चों और नौजवानों को जिम्मेदारी सौंपी जाए और उनमें गाँव और शहरों की समस्याओं की समझ पैदा हो। तमिलनाडु के गाँव पल्लिनीरोदाई की आबादी सिर्फ ढाई सौ है और यहाँ बच्चों की यह संसद काम कर रही है।

14 साल की महालक्ष्मी इस संसद की सदस्य है। वह 9वीं कक्षा में पढ़ती है और नर्स बनना चाहती है। खिलते चेहरे के साथ वह बताती है कि वह इस संसद में सूचना मंत्री है और यह जिम्मेदारी उसके लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना स्कूल और घर का काम।

वह कहती है, 'मैं मीटिंग्स में अखबार लेकर आती हूँ और आसपास की ताजा खबरों के बारे में सब को बताती हूँ। मेरी अब तक की सब से बड़ी कामयाबी यह रही है कि मैंने अपने गाँव के कई माता-पिता को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मना लिया है।'

नियमित बैठक : पल्लिनीरोदाई के इन नन्हें संसद सदस्यों की हर दूसरे हफ्ते में मीटिंग होती है, अक्सर शाम के वक्त, जब बच्चे स्कूल से लौटते हैं। यहाँ वे अपनी समस्याओं और कठिनाइयों पर बात करते हैं और उनका हल निकालने की कोशिश करते हैं, जैसे कि जगह-जगह सड़ते कचरे के ढेर। तमिलनाडु में ऐसे 90 स्कूल हैं, जिनके तकरीबन 3000 बच्चे इस प्रोजेक्ट में शामिल हैं।

प्रोजेक्ट चीफ़ पेरूमल सामिनाथन का कहना है, 'इस संसद के बच्चों की उम्र 10 से 17 के बीच है। हमारा लक्ष्य है कि वे समझे कि लोकतंत्र का सही मतलब क्या है। उन्हें अच्छा नेता बनना है, जिसकी भारत में कमी है। उन्हें अच्छा नागरिक बनना है।'

शुरू में सामाजिक कार्यकर्ता बैठक की कार्रवाई में मदद करते हैं। वे बच्चों को उनके अधिकारों के बारे में बताते हैं और सिखाते हैं कि कैसे उन्हें हासिल किया जा सकता है। बच्चे तौर-तरीकों में माहिर होने लगते हैं और फिर बड़े-बूढ़ों के साथ बैठकर भी मसलों का हल निकालने की कोशिश करते हैं।

सामिनाथन का कहना है कि सामुदायिक भावना पैदा करना सबसे जरूरी है। उनके मुताबिक, 'बच्चों के अधिकार हैं, साथ ही जिम्मेदारियाँ भी। दोनों जुड़े हुए हैं। हम चाहते हैं कि ये बच्चे बदलाव का जरिया बनें।'

कई हैं मुश्किलें : पल्लिनीरोदाई जैसे छोटे से गाँव में भी अनेक समस्याएँ अनेक है। मसलन शिक्षा, इलाज, बीमारियों की रोकथाम या बेरोजगारी। बच्चे इन समस्याओं से भी निपटने की कोशिश करते हैं।

पेरूमल समिनाथन कहते हैं कि उन्हें कतई इस बात का डर नहीं है कि बच्चों की बातों पर गौर नहीं किया जाएगा। उनके शब्दों में, 'पिछले ढाई सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ। सरकारी अफसर भी उनकी बातें सुनते हैं। ऐसी बात है कि बड़े लोग अगर कुछ कहते हैं, तो उसके पीछे दूसरे मकसद भी होते हैं। बच्चों में यह बात नहीं होती। इसलिए मेरा यह मानना है कि राजनीतिक मामलों में बच्चों की भागीदारी की सिर्फ सराहना ही नहीं की जाती है, बल्कि पंचायतें भी उनका स्वागत करती हैं।'

बेटियों पर गर्व : जया की बेटी अनीता काफी समय तक इस संसद की अध्यक्ष रही है। जया को इस बात का गर्व है कि बिल्कुल नए विचारों के कारण उसकी बेटी की बात सुनी जाती है। सांस्कृतिक और संगीत कार्यक्रमों के जरिए वह समस्याओं की ओर ध्यान दिलाती है। जया की और तीन बेटियाँ है और वे भी अपनी बड़ी बहन की तरह बच्चों की संसद में शामिल होना चाहती हैं।

जया कहती हैं, 'यहाँ उसने काफी कुछ सीखा है। मसलन उसने गहने बनाने के एक कोर्स में भाग लिया। उसका आत्मविश्वास अब बहुत बढ़ गया है। वह अब साफ लफ्जों में अपनी बात रख सकती है।

यह भी महत्वपूर्ण है कि लड़कियाँ बच्चों की इस संसद में लड़कों के मुकाबले अधिक सक्रिय हैं। शायद उन्हें समाज की भलाई की अधिक फिक्र है। जर्मनी के अलावा फिनलैंड और जिम्बाब्वे में भी ऐसी बच्चों की संसद काम कर रही हैं।

- प्रिया एसेलबोर्न

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