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जर्मनी में भेदभाव से निपटने के लिए नया प्रोजेक्ट

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, बुधवार, 7 जुलाई 2010 (18:56 IST)
जर्मनी में अल्पसंख्यकों को कई बार नौकरी ढूँढने में दिक्कतें पेश आती हैं। यूँ तो ज्यादातर कंपनियाँ विविधता को अपनी एक ताकत के रूप में देखती हैं। फिर भी कई मामलों में अप्लीकेशन की जाँच में निष्पक्षता नहीं रह पाती।

जर्मनी में तुर्क मूल का कोई व्यक्ति अगर नौकरी के लिए अप्लाई करता है तो जर्मन व्यक्ति की तुलना में उसे जवाब मिलने की उम्मीद 14 फीसदी कम होती है। जर्मनी में भेदभाव विरोधी एजेंसी के मुताबिक पूर्वाग्रह और खराब मैनेजमेंट का असर यह होता है कि बहुत से मामलों में अल्पसंख्यकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया हीं नहीं जाता।

इस समस्या से निपटने के लिए एक नए प्रोजेक्ट का सहारा लिया जा रहा है जिसमें नौकरी के लिए आवेदन करने वाले को बेनाम रखा जाएगा और फिर तय किया जाएगा कि उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए या नहीं।

इस प्रोजेक्ट के जरिए एंटी डिस्क्रिमिनेशन एजेंसी जर्मनी में वर्कफोर्स की पृष्ठभूमि में विविधता नया कानून लाए बगैर लाना चाहती है। इसके तहत प्रोक्टर एंड गैम्बल, लोरियाल सहित पाँच बड़ी कंपनियाँ अगले एक साल के लिए बेनाम एप्लीकेशन को जाँचने के लिए तैयार हो गए हैं।

यानी आवेदक की पृष्ठभूमि जाने बगैर ही उसे इंटरव्यू के लिए बुलाने या नौकरी पर रखने का फैसला लिया जाएगा। इसके जरिए किसी आवेदक की योग्यताओं के आधार पर ही फैसला लिया जाएगा, अन्य किसी कारणों से नहीं।

जर्मनी में नौकरी के लिए एप्लीकेशन में फोटो, जन्मतिथि, पारिवारिक जानकारी और राष्ट्रीयता का उल्लेख करना होता है। एंटी डिस्क्रिमिनेशन एजेंसी की निदेशक क्रिस्टीन लुडर्स के मुताबिक यह प्रक्रिया पिछले कई सालों से चलन में है और इसमें बदलाव नहीं किया गया है।

डॉयचे वेले को क्रिस्टीन ने बताया कि कई बार ऐसा होता है कि अगर दो बच्चों की माँ किसी नौकरी के लिए आवेदन देती है तो उसे इंटरव्यू के लिए ही नहीं बुलाया जाता। जर्मनी इस तरह से योग्य लोगों को नहीं खो सकता।

एक रिपोर्ट में पाया गया कि नैचुरल साइंस में डॉक्टोरल डिग्री पाने वाले एक व्यक्ति को 230 एप्लीकेशन के बावजूद उन्हें एक बार भी सफलता नहीं मिली। हताशा में उन्होंने अपना नाम अली से एलेक्स कर लिया जो उनकी पत्नी का आखिरी नाम है।

क्रिस्टीन का मानना है कि ऐसी समस्या से निपटने और पूरी प्रक्रिया को नया रूप देने से जर्मनी का ही फायदा होगा। वहीं इस प्रोजेक्ट में हिस्सा ले रही कंपनियों का मानना है कि इससे उनकी वर्कफोर्स में विविधता आएगी और उनके उत्पादों की अपील बढ़ेगी।

- एजेंसियाँ/एस. गौड़

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