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सौंदर्य से परिपूर्ण हैं नर्मदा की संगमरमरी चट्टानें

नर्मदा के घाटों का अलौकिक सौंदर्य

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- प्रमोद शर्मा/शैली खत्र

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उद्गम से लेकर सागर समागम तक नर्मदा का जो तेज, जो सौंदर्य, जो अठखेलियाँ और जो अदाएँ दिखाई देती हैं वे जबलपुर के अलावा अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रकृति ने तो इस क्षेत्र में नर्मदा को अतुलित सौंदर्य प्रदान किया ही, स्वयं नर्मदा ने भी अपने हठ और तप से अपने सौंदर्य में वृद्धि इसी क्षेत्र में की है।

यहाँ नर्मदा ने हठ और तप से रास्ता भी बदला है। पहले कभी वह धुआँधार से उत्तर की ओर मुड़कर सपाट चौड़े मैदान की ओर बहती थी। उसकी धार के ठीक सामने का सौंदर्य संभवतः नर्मदा को भी आकर्षित करता होगा।

तभी तो लगातार जोर मारती लहरों से चट्टानों का सीना चीरकर हजारों वर्ष के कठोर संघर्ष के बाद नर्मदा ने यह सौंदर्य पाया है जिसे निहारने देश ही नहीं, विदेशी पर्यावरण प्रेमी भी खिंचे चले आते हैं। संगमरमरी चट्टानों के बीच बिखरा नर्मदा का अनूठा सौंदर्य देखते न तो मन अघाता है और न आँखें ही थकती हैं। भेड़ाघाट, तिलवाराघाट के आस-पास के क्षेत्र का इतिहास 150 से 180 करोड़ वर्ष पहले प्रारंभ होता है। कुछ वैज्ञानिक इसे 180 से 250 करोड़ वर्ष पुरानी भी मानते हैं।

  उद्गम से लेकर सागर समागम तक नर्मदा का जो तेज, जो सौंदर्य, जो अठखेलियाँ और जो अदाएँ दिखाई देती हैं वे जबलपुर के अलावा अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रकृति ने तो इस क्षेत्र में नर्मदा को अतुलित सौंदर्य प्रदान किया है।      
भेड़ाघाट के नाम को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल में भृगु ऋषि का आश्रम इसी क्षेत्र में था। इस कारण भी इस स्थान को भेड़ाघाट कहा जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसी स्थल पर नर्मदा का बावनगंगा के साथ संगम होता है।

लोक भाषा में भेड़ा का अर्थ भिड़ना या मिलना है। इस मत को मानने वालों के अनुसार इसी संगम के कारण इस स्थान का नाम भेड़ाघाट हुआ।

एक अन्य मत के अनुसार यह स्थान 1,700 वर्ष पूर्व शक्ति का केंद्र था। शैव मत वालों के अलावा शक्ति के उपासक भी यहाँ आते थे इसलिए निश्चय ही यह स्थान कभी भैरवीघाट रहा होगा और बाद में अपभ्रंश होकर भेड़ाघाट हो गया। गुप्तोत्तर काल में संभवतः इस मंदिर का विस्तार किया गया और इसमें सप्त मातृकाओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं थीं।

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ये प्रतिमाएँ आज भी भेड़ाघाट स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर में हैं। लगभग 10 वीं शताब्दी में त्रिपुरी के कल्चुरि राजाओं के शासनकाल में इस मंदिर का और विस्तार किया गया। इन सभी मतों के पीछे तर्क और प्रमाण का आधार है। इनमें इतना तो सच है कि इस स्थान को नर्मदा ने अतुलित सौंदर्य प्रदान किया है।

748 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला यह क्षेत्र आज शैव, वैष्णव, जैन तथा अन्य मत-मतांतर मानने वालों के लिए आस्था का केंद्र है। पर्यटन और सौंदर्य की दृष्टि से तो यह महत्वपूर्ण है ही। इस क्षेत्र में नौका विहार द्वारा भ्रमण करते समय नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। बंदरकूदनी तक पहुँचते-पहुँचते पर्यटक संगमरमरी आभा से अभिभूत होता है और रंग-बिरंगे पत्थर उसे मुग्ध कर देते हैं।

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जबलपुर के भेड़ाघाट में जहाँ से नौका विहार शुरू होता है वहाँ स्थित है पचमढ़ा का प्रसिद्ध मंदिर। यहाँ एक ही प्रांगण में चार मंदिर हैं। दो सौ साल पुराने इन मंदिरों का सौंदर्य अद्वितीय है। ये सभी मंदिर शिव को समर्पित हैं। जबलपुर में इसके अलावा भी अनेक ऐसे स्थान हैं जो नर्मदा क्षेत्र के पर्यटन में चार चाँद लगाते हैं। इनमें ग्वारीघाट, तिलवाराघाट, लम्हेटाघाट, गोपालपुर, घुघुआ फॉल, चौंसठ योगिनी मंदिर और पंचवटीघाट जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल हैं।

इन क्षेत्रों में भी सौंदर्य की अपनी छटा है पर भेड़ाघाट के सौंदर्य के आगे सब फीके नजर आते हैं। जबलपुर में नर्मदा की आस्था का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है ग्वारीघाट। शाम होते ही यहाँ का सौंदर्य अद्भुत होता है। घाट पर खड़े होकर नर्मदा की जलराशि में तैरते असंख्य दीप ऐसे लगते हैं मानो पूरा आकाश ही धरती पर उतर आया हो। नर्मदा की मद्धिम लहरों में झिलमिलाते दीपों का प्रकाश मन को प्रसन्न कर देता है।
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रोज शाम को दीपदान करने वालों का रेला यहाँ पहुँचता है। नदी के बीच में देवी नर्मदा का मंदिर श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण है। नाव से वहाँ तक पहुँचकर पूजा करना रोमांचक अनुभव है। इसके अलावा घाट पर अनेक मंदिर हैं, जिनमें कुछ प्राचीन हैं तो कुछ हाल के वर्षों में बने हैं। घाट से दूर जाने पर माँ काली का प्राचीन और सिद्ध मंदिर है।

विभिन्न संतों के आश्रम भी आस-पास होने के कारण यहाँ श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। कहते हैं नर्मदा के दर्शन से ही सारे पाप नष्ट होते हैं। इसलिए यहाँ दर्शनार्थियों का भी ताँता लगता है। ग्वारीघाट में नौका विहार की भी सुविधा है।

नर्मदा का दूसरा महत्वपूर्ण घाट है तिलवाराघाट। यहाँ लगने वाला मकर संक्रांति का मेला बड़ा प्रसिद्ध है। इस मेले का इतिहास भी प्राचीन है। यहाँ स्थित मंदिर भी बहुत प्राचीन है। पुराने समय से गोपालपुर स्थित मंदिर की बाहरी छटा अत्यंत सुंदर है।

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