जब दूसरे देशों ने सभ्यता का सूरज भी नहीं होगा तब से भारत मानव अधिकारों के संरक्षण की आवाज बुलंद करता रहा है। आज भले ही पश्चिमी देश इस मामले में खुद को श्रेष्ठ बताते हों, लेकिन भारत में मानवाधिकार की अवधारणा बहुत पुरानी है। वेदों और अन्य धर्मग्रंथों में खुलकर मानवाधिकारों की बात कही गई है।वर्तमान में मानवाधिकारों का संरक्षण दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। आतंकवाद, भ्रष्टाचार, ऊंच-नीच, रंगभेद, जातिवाद आदि ऐसी विश्वव्यापी समस्याएँ हैं, जिनके चलते मानवाधिकारों के संरक्षण में काफी मुश्किलें आ रही हैं। विकासशील और अविकसित देशों में तो यह समस्या काफी विकराल रूप ले चुकी है। इस समस्या से भारतीय दर्शन में मौजूद सीख से निजात पाई जा सकती है।'
वसुधैव कुटुंबकम' अर्थात पूरी धरती को अपना कुटुंब और परिवार मानने की बात भारतीय शास्त्रों और धर्मग्रंथों में ही कही गई है। यदि इस संदेश को पूरी दुनिया अंगीकार कर ले तो मानवाधिकार ही नहीं अन्य दूसरी समस्याओं पर भी काबू पाया जा सकता है साथ ही लोग एक-दूसरे से परिवार की तरह प्रेम करने लगें। इस वैदिक श्लोक में ईश्वर से सबके सुख की कामना की गई है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।।
अर्थात सभी सुखी रहें, निरोगी रहें किसी को भी कष्ट न हो।
यजुर्वेद में भी प्राणी मात्र के कल्याण की बात कही गई है। यजुर्वेद के एक श्लोक के मुताबिक, जो व्यक्ति सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान आत्मा को देखता है वह कभी किसी का शोषण नहीं करता। जिस प्रकार मुझे तकलीफ होती है उसी प्रकार दूसरे को भी कष्ट होता है। अर्थात यहां भी प्रत्येक व्यक्ति के मानव अधिकार की बात कही गई है।
महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में भीष्म पितामह ने राजा के कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि सर्वोत्तम राजा वह है, जो अपनी प्रजा के विचारों और अधिकारों की रक्षा करे।
युद्ध में भी मानव अधिकार : यह सुनने में भले ही विचित्र लग सकता है कि युद्ध के दौरान भी मानव अधिकारों की रक्षा की जा सकती है, लेकिन महाभारत युद्ध इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। प्रारंभिक दौर में यह युद्ध तय नियमों के तहत ही लड़ा गया। युद्ध के दौरान कोई भी योद्धा किसी भी निहत्थे सैनिक पर वार नहीं करता था। अर्थात हथियार के साथ लड़ना किसी भी सैनिक का मानव अधिकार था और उसकी वहां रक्षा कर गई। इतना ही नहीं सूर्यास्त के बाद युद्ध रोक दिया जाता था। हालांकि बाद में इन नियमों का पालन नहीं किया गया।
तुलसीदासजी भी रामचरित मानस में कहते हैं-
परहित सरस धरम नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।
अर्थात परोपकार के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है और परपीड़ा अर्थात दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है।
एक अन्य चौपाई में तुलसी बाबा ज्यादा ही सख्ती दिखाते हुए कहते हैं कि ऐसा राजा नरक का अधिकारी होता है जो अपनी प्रजा का पालन समुचित तरीके से नहीं करता अथवा उसके मानवाधिकारों की रक्षा की तरफ ध्यान नहीं देता-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि हम क्या थे और वर्तमान में क्या हो गए हैं। यदि ईमानदारी से हम इस पर चिंतन करें तो कोई बड़ी बात नहीं कि इस विश्वव्यापी समस्या का हल खोजा जा सकता है।
कवि ने भी कहा है-
हम कौन थे, क्या हो गए अब और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें बैठकर, ये समस्याएं सभी।