Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन

हमें फॉलो करें मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन
नई दिल्ली , शुक्रवार, 6 नवंबर 2009 (11:48 IST)
हिन्दी पत्रकारिता के समकालीन श्रेष्ठ प्रभाष जोशी (72) नहीं रहे। दिल का दौरा पड़ने के कारण मध्य रात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुन्धरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनका निधन हो गया।

ND
उनकी पार्थिव देह को विमान से आज दोपहर बाद उनके गृह नगर इन्दौर ले जाया जाएगा, जहाँ नर्मदा के किनारे स्थित बड़वाह में कल उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

क्रिकेट के रसिया और लेखक प्रभाष जोशी दिल का दौरा पड़ने से ठीक पहले भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच चल रहा एक दिवसीय क्रिकेट मैच देख रहे थे। बेचैनी होने पर उन्हें समीप के नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

'जनसत्ता' के संस्थापक संपादक रहे प्रभाष जोशी के शोक संतप्त परिवार में उनकी माता लीलाबाई जोशी के साथ ही पत्नी उषा जोशी, पुत्र संदीप, सोपान, पुत्री सोनल और नाती-पोते सहित लाखों प्रशंसक हैं।

इंदौर से निकलने वाले हिन्दी दैनिक ‘नईदुनिया’ से अपनी पत्रकारिता शुरू करने वाले प्रभाष राजेन्द्माथुर, शरद जोशी के समकक्ष थे। देसज संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित प्रभाष जोशी सर्वोदय और गाँधीवादी विचारधारा में रचे-बसे थे।

‘नईदुनिया’ के बाद प्रभाष जोशी भोपाल से प्रकाशित होने वाले ‘मध्य देश’ से जुड़ गए। जब 1972 में जयप्रकाश नारायण ने मुँगावली की खुली जेल में माधोसिंह जैसे दुर्दान्त दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तब प्रभाष जोशी भी इस अभियान से जुड़े सेनानियों में से एक थे।

दिल्ली आने के बाद प्रभाषजी ने पंडित भवानीप्रसाद मिश्र के संपादकत्व में ‘सर्वोदय जगत’ में काम किया। उन्होंने 1974-1975 में एक्सप्रेस समूह के हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रजानीति’ का संपादन किया। आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका ‘आसपास’ उन्होंने निकाली।

बाद में वे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे। प्रभाष जोशी और ‘जनसत्ता’ एक दूसरे के पर्याय रहे। वर्ष 1983 में एक्सप्रेस समूह के इस हिन्दी दैनिक की शुरुआत करने वाले प्रभाष जोशी ने हिन्दी पत्रकारिता को दिशा दी। उन्होंने सरोकारों के साथ ही शब्दों को भी आम जन की संवेदनाओं और सूचनाओं का जरिया बनाया।

प्रभाषजी के लेखन में विविधता और भाषा में लालित्य का अद्भुत समागम रहा। उनकी कलम सत्ता को सलाम करने की जगह सरोकार बताती रही और जनाकांक्षाओं पर चोट करने वालों को निशाना बनाती रही।

उन्होंने संपादकीय श्रेष्ठता पर प्रबंधकीय वर्चस्व कभी हावी नहीं होने दिया। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से निवृत्त होने के बाद वे कुछ वर्ष पूर्व तक प्रधान सलाहकार संपादक के पद पर बने रहे। उनका साप्ताहिक स्तंभ ‘कागद कारे’ उनके रचना संसार और शब्द संस्कार की मिसाल है। इन दिनों वे समाचार-पत्रों में चुनावी खबरें धन लेकर छापने के खिलाफ मुहिम में जुटे हुए थे।

‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो’ ये पंक्तियाँ प्रभाष जोशी पर पूरी तरह से सही उतरती हैं। जहाँ वे 1974-75 में आपातकाल के खिलाफ कलम को हथियार बनाए हुए थे, वहीं जब बोफोर्स तोपों की खरीद में कथित घोटाला सामने आया, तब वे तब की सरकार को हटाने के लिए जेहादी पत्रकारिता के पथ पर चले।

इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में सिखों का संहार हो रहा था, प्रभाषजी के नेतृत्व में ‘जनसत्ता’ अल्पसंख्यकों पर आई इस आफत का आईना बन गया।

इसी तरह छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढाँचे के विध्वंस के बाद प्रभाषजी ने मंदिर आंदोलन के संचालकों के खिलाफ एक तरीके से कलम विद्रोह कर डाला। परन्तु ऐसा करते समय वे अपना पत्रकारी धर्म नहीं भूले। जहाँ वे अपने लेखों में अभियानी तेवर के तीखेपन से ढाँचा ढहाने के कथित दोषियों के दंभ पर वार करते रहे, वहीं समाचारों में तटस्थता के पत्रकारी कर्म को भी उन्होंने बनाए रखा।

उन्होंने अपने संपादकीय सहकर्मियों की बैठक बुला कर कहा कि वे जो लिखते हैं, उससे प्रभावित होने की जगह समाचारों में निष्पक्ष और तटस्थ रहने की आवश्यकता है।

करीब आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक प्रभाष जोशी में अपने सहयोगियों के प्रति एक सहज अपनापन रहा। वे उनके दुःख और सुख में हमेशा साथ पाए जाते रहे। उनके अभियानी लेखन के आलोचक भी इस तथ्य को भुला नहीं सकते कि उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को प्रेस विज्ञप्ति के दौर से, उसकी भाषा को जड़ता और दुरूहता से निकाला तथा हिन्दी पत्रकारिता को सम्मान का स्थान दिलवाया।

जहाँ आम संपादक अपने अखबार के लिए जाने-माने पत्रकारों को बुला कर नौकरी देते, वहीं प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ शुरू करते समय हिन्दी प्रदेश के अनजाने पत्रकारों को प्रतिभा की कसौटी पर कस कर मौका दिया, जो हिन्दी पत्रकारिता में जहाँ-तहाँ उनके दिए संस्कारों और सरोकारों की सुगंध फैला कर यह साबित करते रहेंगे कि प्रभाष जोशी की देह भले ही नहीं रही हो, उनका रचना संसार अमर है। (भाषा)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi