नई दिल्ली (भाषा) , गुरुवार, 17 सितम्बर 2009 (17:02 IST)
FILE
समलैंगिकता पर कोई रुख बनाने से बचते हुए सरकार ने गुरुवार को वस्तुत: यह फैसला उच्चतम न्यायालय पर छोड़ दिया है कि दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय सही है या नहीं।
प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की अध्यक्षता में यहाँ हुई केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया कि अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत की मदद करेंगे। कैबिनेट ने इस मुद्दे पर तीन सदस्यीय मंत्री समूह की रिपोर्ट पर भी विचार किया।
कैबिनेट बैठक के बाद सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने यहाँ बताया कि कैबिनेट ने वाहनवती को उच्चतम न्यायालय की हर तरह से मदद करने के लिए कहने का फैसला किया है। अटॉर्नी जनरल इस मामले में उच्चतम न्यायालय की मदद करने में पूरी तरह सक्षम हैं।
उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय ही तय करेगा कि समलैंगिक संबंधों के बारे में उच्च न्यायालय का फैसला सही है या नहीं। उन्होंने इस मुद्दे पर और कुछ कहने से इनकार कर दिया। अंबिका ने कहा कि वे इस मामले में और अधिक स्पष्टीकरण देने की अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि मामला कैबिनेट की कार्रवाई से जुड़ा है।
उधर, एक मंत्री ने इस सवाल पर कि मामला शीर्ष अदालत पर ही क्यों छोड़ दिया गया है, कहा कि कैबिनेट ने तय किया है कि वह किसी विवाद में पड़ने से बचने के लिए इस मुद्दे पर कोई रुख कायम नहीं करेगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने दो महीने पहले पारित अपने आदेश में वयस्कों में परस्पर सहमति से होने वाले समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी थी। इससे पहले आईपीसी की धारा-377 के तहत इसे अपराध माना जाता था। कुछ धार्मिक संस्थानों ने इस फैसले का विरोध किया।
एक ईसाई संगठन, योग गुरु रामदेव के एक शिष्य और दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने इस संबंध में सरकार से एक अक्टूबर तक जवाब देने को कहा। उच्चतम न्यायालय ने इससे पहले उच्च न्यायालय के फैसले पर यह कहते हुए स्थगनादेश देने से इनकार कर दिया था कि वह सरकार के जवाब की प्रतीक्षा करेगा।
मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार ने गृहमंत्री पी चिदंबरम, स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को शामिल कर मंत्री समूह का गठन कर उसे इस संबंध में अपनी राय देने को कहा। समझा जाता है कि मंत्री समूह ने सुझाव दिया है कि सरकार को इस बारे में कोई राय नहीं देनी चाहिए और मामले पर फैसला शीर्ष अदालत पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए।