हर साल की तरह, फिर जन्माष्टमी आएगी परमपिता परमात्मा की, फिर से याद दिलाएगी इस जन्माष्टमी पर, मन में प्रश्न उभरता है परमपिता परमात्मा, मानव क्यों बनता है
सुना है विद्वानों से, बैकुण्ठ में प्रभु का वास है जहां न कोई दुख-संताप, केवल सुख का वास है उस बैकुण्ठ को छोड़, क्यों आते प्रभु इस लोक है, जहां मात्र संताप, पीड़ा, यातना और शौक है
आप कहेंगे, यह कैसा बचकाना प्रश्न है स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है यदा यदा हि धर्मस्यग्लानि: भवतिभारत अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदाआत्मानम्सृजामि अहम्?
अर्थात्, कृष्ण थे जन्मे पापियों का नाश करने धर्म की करने रक्षा और अधर्म का नाश करने बात मैं मानूं नहीं, भगवन क्षमा मुझको करें सही बात है कुछ और लीला न प्रभु मुझसे करें
कंस शिशुपाल जैसे जंतुओं को मारने के लिए बैकुंठ से हल्का इशारा, पर्याप्त निपटाने के लिए हां, जन्म लेकर आपने, इनका नाश कुछ ऐसे किया? 'बाय-प्रोडक्ट' जन्म का, मन भ्रमित सब का किया?
जन्मे थे प्रभु आप, हम मानवों को शिक्षा देने हम थे भूले-भटके, थे जन्मे हमें राह देने
कैसे करें आदर बड़ों का, माता, पिता, गुरुजनों का कर्तव्य-पालन के लिए, त्याग कैसे करें सुखों का
कैसे करें प्रेम निर्मल, मन में न कोई स्वार्थ हो मनसा वाचा कर्मणा, हर सोच केवल धर्मार्थ हो कैसे निभाएं मित्रता, सीखें सुदामा प्रेम में छोड़ी प्रतिज्ञा स्वयं की, अर्जुन सखा के प्रेम में
कैसे करें रक्षा बहिन की, जैसे की द्रौपदी हे प्रभो दुष्ट-दण्डित कैसे करें, शिक्षा आपने दी है प्रभो त्यागी दुर्योधन की मेवा, स्वीकारा साग विदुर का छोड़ें हम साथ पापियों का, गुप्त संदेश आपका
दी और भी शिक्षा प्रभु, नहीं शब्द मेरे पास हैं हाथ मेरा थामिए प्रभु, केवल मेरी यह आस है इस जन्माष्टमी पर प्रभु, बोध मुझको दीजिए अनुकरण कुछ कर सकूं, बुद्धि मुझको दीजिए
जन्मे थे प्रभु आप क्यों, ज्ञान सबको दीजिए कैसे जीवन जिएं हम, पथ प्रदर्शित कीजिए 'ओम' चरणों में पड़ा, कृपा-शरण दीजे विभु कृष्ण-कृपा सर्वत्र हो, जय-जयकार मेरे प्रभु।