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उपेक्षित है कबीर की निर्वाणस्थली मगहर

18 जून कबीर जयंती पर विशेष

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बस्ती (वार्ता) , मंगलवार, 17 जून 2008 (12:05 IST)
उत्तरप्रदेश के संत कबीरनगर जिले के मगहर स्थित संत कबीरदास की निर्वाणस्थली अनेक प्रयासों के बाद भी अंतरराष्ट्रीय पर्यटक स्थल के रूप में विकसित नहीं हो पा रही है।

सद्‍गुरु कबीर स्मारक संस्थान एवं सद्‍गुरु कबीर समाधि स्थली कबीर चौरा मगहर के महंत विचारदास ने बताया कि 11 अगस्त 2003 को तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम संत कबीरदास की निर्वाणस्थली आए थे।

श्री दास ने कहा कि कलाम ने मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटक स्थल बनाए जाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा था कि संत कबीरदास के उपदेश अब पहले से भी अधिक प्रासंगिक और आवश्यक हैं।

यहाँ रिसर्च सेंटर पुस्तकालय, संग्रहालय स्थापना की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा था कि विश्व शांति के लिए संत कबीर के उपदेशों का व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार आवश्यक है।

उन्होंने बताया कि डॉ. कलाम के प्रयास से एक लाख रुपए समाधिस्थल तथा एक लाख रुपए मजारस्थल को विकसित करने के लिए मिले थे। उसके बाद अन्य कार्यों के लिए सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला है।

उन्होंने बताया कि सद्‍गुरु कबीर समाधिस्थल मगहर मानव मात्र की एकता को अभिभूत करने वाला तीर्थ ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय प्रेरणा का केन्द्र भी है। इस केन्द्र को कबीर साहब के आदर्शों के अनुरूप संयोजित करने के लिए यथासंभव प्रयास किए जा रहे हैं।

उद्देश्य यही है कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय प्रेरणा स्थल बनाकर हिन्दू और मुलसमानों को ही नहीं, बल्कि सभी संप्रदायों के लोगों को एक साथ लाया जाए।

सद्‍गुरु साहब का संदेश जन-जन तक पहुँचाने और कबीर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य से 1993 में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल बोरा ने संत कबीर शोध संस्थान की स्थापना की थी।

महंत विचारदास ने बताया कि मगहर में प्रतिवर्ष तीन बड़े कार्यक्रम होते हैं। हर साल 12 से 16 जनवरी तक 'मगहर महोत्सव एवं कबीर मेला' का आयोजन किया जाता है, जिनमें संगोष्ठी, परिचर्चा, चित्र एवं पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं।

माघ शुक्ल एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्वाण दिवस समारोह आयोजित किया जाता है। इसी प्रकार हर साल कबीर जयंती समारोह के आयोजन से भी उनके संदेशों को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य के विविध कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

इसके अलावा कबीर मठ द्वारा संगीत, सत्संग एवं साधना, साहित्य प्रचार-प्रसार तथा शोध साहित्य, सद्‍गुरु कबीर बाल मंदिर, संत आश्रम एवं गोसेवा, वृद्धाश्रम तथा यात्रियों की आवासीय व्यवस्था जैसी सात प्रमुख गतिविधियाँ सम्यक रूप से संचालित की जाती हैं।

कबीरदास का जन्म काशी में 18 जून सन् 1398 ई. को हुआ था। नीमा और नीरू नामक जुलाहा दंपति ने उनका लालन-पोषण किया। वे बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। हिन्दू भक्तिधारा की ओर उनका झुकाव प्रारम्भ से ही था। कबीर का विवाह लोई से हुआ। उनकी कमाल और कमाली नामक दो संतानें थीं।

कबीर का अधिकांश समय काशी में ही बीता। वे मूलत: संत थे, किन्तु उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन के कर्त्तव्यों की कभी उपेक्षा नहीं की। परिवार के भरण-पोषण के लिए कबीर ने जुलाहे का काम अपनाया और आजीवन इसी में लगे रहे।

अपने इसी व्यवसाय में प्रयुक्त होने वाले चरखे, ताना-बाना, भरनी, पूनी का प्रतीकात्मक प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में भी किया था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं 'मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहीं हाथ' कहकर इसकी पुष्टि की है।

सत्संग एवं भ्रमण द्वारा अर्जित ज्ञान को कबीर ने काव्य के रूप में अभिव्यक्ति दी और हिन्दी साहित्य की निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि के रूप में मान्य हुए।

कबीर ने गुरु रामानन्द स्वामी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग उन्हें सूफी फकीर शेख तकी का भी शिष्य मानते हैं, लेकिन जिस श्रद्धा के साथ कबीर ने स्वामी रामानन्द का नाम लिया है, उससे स्पष्ट है कि स्वामी रामानन्द ही कबीर के गुरु थे।

काशी में मरने पर मोक्ष प्राप्त होता है, जबकि मगहर में मृत्यु होने पर नरक मिलता है। इस अंधविश्वास को मिटाने के लिए कबीर जीवन के अंतिम समय में मगहर चले गए। वहीं सन् 1495 ई. में उनका देहांत हो गया।

पढ़े-लिखे नहीं होने के कारण कबीर ने स्वयं कुछ नहीं लिखा। उनके शिष्यों द्वारा ही उनकी रचनाओं को लिपिबद्ध किया गया। उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी रचनाओं का संकलन 'बीजक' नामक ग्रंथ में किया है, जिसके तीन खण्ड हैं- 'साखी', 'सबद' तथा 'रमैनी'। साखी में दोहे, सबद में पद और रमैनी में दोहे व चौपाई तथा छन्दों का प्रयोग हुआ है।

कबीर का काव्य ईश्वरीय भक्ति के साथ-साथ समाज सुधार, बाह्य आडम्बर का विरोध, हिन्दू-मुस्लिम एकता, नीति आदि का प्रतिपादन करता है।

कबीर की भाषा पचमेल या खिचड़ी है। इसमें हिन्दी के अतिरिक्त पंजाबी, राजस्थानी, भोजपुरी, बुंदेलखण्डी आदि भाषाओं के शब्द भी हैं।

कबीर संत थे, इसलिए सत्संग और भ्रमण के कारण उनकी भाषा का यह रूप सामने आया। कबीर के काव्य में भाषा की अपेक्षा भावों पर अधिक जोर दिया गया है।

कबीरदास के निर्वाण के बाद मगहर के तत्कालीन शासक बिजली खाँ पठान द्वारा कबीर रौजा तथा वीरसिंह देवराज बघेल द्वारा समाधि का निर्माण कराया गया था। रौजा तथा समाधि की देखभाल और व्यवस्था संचालन के लिए पाँच-पाँच सौ बीघा जमीन भी दी गई थी।

रौजा के संचालकों ने अपनी पाँच सौ बीघा जमीन तो बेच डाली, लेकिन समाधि के संचालकों की जमीन यथावत बची हुई है। उस पर खेती की जा रही है और उसकी आमदनी से कबीर की समाधि की व्यवस्था संचालित की जा रही है।

समाधि व रौजा के ठीक पीछे जर्जर अवस्था में एक मकान दिखाई पडता है, जिसे कबीर की भुंई या गुफा कहते हैं। यह कबीर की साधनास्थली है। कबीर का धर्म मानव धर्म है, जो मनुष्य को जोड़ता है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ऐसे थे कबीर- 'सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्ति के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर।

एक अन्य विचारक ने संत कबीर का चित्रण इस प्रकार किया है- अनगढ़, खड़ी, अटपटी भाषा, भावोंभरा अबोला।

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