वैसे तो 'डिस्पोजल' का शाब्दिक अर्थ होता है निवारण, मगर व्यवहार में डिस्पोजल, जिस अर्थ में लिया जा रहा है, वह है 'चूंकि अनुपयोगी हो गया है, अतः फेंकने काबिल।' यही वजह है कि उन ग्लासों को डिस्पोजेबल ग्लास कहते हैं, जिनका उपयोग करने के बाद जिन्हें फेंक दिया जाता है। इस प्रक्रिया को कहते हैं 'यूज एंड थ्रो' अर्थात उपयोग करो और फेंक दो।
ऐसी बात नहीं है कि यह मानसिकता हमारी सोच में कभी नहीं रही है। हमारे यहां एक कथन प्रचलन में रहा है, 'आम खाकर गुठली गले में कौन लटकाता है?' यह मानसिकता भले ही समाज में रही हो, मगर इसे कभी अच्छी नहीं माना गया। इसे हमेशा मतलब परस्ती, खुदगर्जी और स्वार्थपरकता ही माना जाता रहा है। यही वजह रही है कि रिश्ते जन्मता रहे हों, या मुंहबोले, कभी उथले नहीं रहे। उन्हें शिद्धत से निभाया जाता था। एक पीढ़ी द्वारा बनाए गए रिश्ते आगे कई पीढ़ियां निभाती थीं।
मगर, अब नया ही दौर आया है। इस दौर में रिश्तों की संजीदगी, संबंधों की भावनात्मक ऊर्जा शनैः शनैः अपनी ऊष्मा, अपने अर्थ और अपने स्वरूप खोती जा रही है। अब हाल यह है कि जन्म के रिश्ते नहीं निभाए जा रहे हैं, तो मुंहबोले रिश्तों की कौन कहे।
दरअसल ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारा समाज सामंती, पूंजीवादी दौर से आगे नग्न (या क्रूर) पूंजीवादी, साम्राज्यवादी दौर में प्रवेश कर गया है। परिवार से लेकर बाहर सारे समाज को बाजारवाद ने ढंक लिया है। बाजारवाद वस्तु हो या व्यक्ति, उसकी उपयोगिता देखता है।
इसमें हर व्यवहार के पीछे एक मकसद छुपा होता है, वह यह कि ऐसा करने पर मुझे क्या मिलेगा? जिसमें कुछ रिटर्न है, वह उपयोगी है। जिसमें कुछ भी रिटर्न नहीं है वह अनुपयोगी है, फेंके जाने योग्य। जिसमें कुछ है उसे सीने से लगाए रहो और जिसमें कुछ नहीं है, उसे फेंक दो। उससे छुटकारा पा लो।
यह भावना जब रिश्तों में आ जाती है तो रिश्तों पर आधारित सारी संस्थाएं रेगिस्तान बन जाती हैं, जिनमें भावनाओं के शीतल जल का कोई अता-पता नहीं होता। बाजार यह तय कर देता है कि वही रिश्ते उपयोगी हैं, जिनसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अर्थलाभ होता हो।
हम सबके वस्तु बन जाने के दौर में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि अब वही रिश्ते निभते और निभाए जाते हैं, जिनकी कुछ उपयोगिता हो, खासकर आर्थिक उपयोगिता। इसी का परिणाम है कि वृद्ध माता-पिता अपने ही परिवार में बोझ से लगते हैं। आठ बच्चों का बाप वृद्धाश्रम पहुंचा दिया जाता है। परिवार का वह सदस्य, जो किसी लंबी बीमारी से ग्रस्त हो, परिवार के लिए समस्या बन जाता है।
आर्थिक प्रभुसत्ता के हस्तांतरण की लालसा इतनी जोर मारती है कि पुत्र मां की मृत्यु का फर्जी प्रमाण-पत्र बनवा कर जायदाद अपने नाम करवा लेता है। परिवार के मुखिया की आमदनी कम हो जाए, तो उसके प्रति परिजनों के व्यवहार में उपेक्षा भाव आ जाता है। जिस बहू का पति ज्यादा कमाता हो, उसके व्यवहार में स्वतः अहंकार आ जाता है। संपन्न और विपन्न रिश्तेदारों के यहां काज क्रियावर में लेन-देन में फर्क आ जाता है। यह सब इसलिए हो रहा है कि हमारे सारे रिश्ते अब 'डिस्पोजेबल' हो गए हैं।