ईश्वर के बारे में विवेकानंद के विचार
स्वामी विवेकानंद की छोटी स्टोरी
ईश्वर व्यष्टियों की समष्टि है और साथ ही वह एक व्यष्टि भी है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि मानव-शरीर इकाई होते हुए भी कोशिकाओंरूपी अनेक व्यष्टियों की समष्टि है। समष्टि ही ईश्वर है और व्यष्टि ही जीव है अतएव ईश्वर का अस्तित्व जीव के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का अस्तित्व कोशिकाओं पर और इसका विलोम भी सत्य है।
इस प्रकार जीव और ईश्वर सह-अस्तित्वमान हैं। यदि एक का अस्तित्व है तो दूसरे का होगा ही और चूंकि, हमारी इस धरती को छोड़कर अन्य सब उच्चतर लोकों में अच्छाई या शुभ की मात्रा बुराई या अशुभ की मात्रा से बहुत ज्यादा है। हम इन सबकी समष्टि- ईश्वर- को सर्वशुभ कह सकते हैं।
समष्टिस्वरूप होने के कारण, सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता ईश्वर के प्रत्यक्ष गुण हैं। इन्हें सिद्ध करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं। ब्रह्म इन दोनों से परे है और निर्विकार है। ब्रह्म ही एक ऐसी इकाई है, जो अन्य इकाइयों की समष्टि नहीं है- वह अखंड है, वह क्षुद्र जीवाणु से लेकर ईश्वर तक समस्त भूतों में व्याप्त है, उसके बिना किसी का अस्तित्व संभव नहीं।
...और जो कुछ भी सत्य है, वह ब्रह्म ही है। जब मैं सोचता हूं अहं ब्रह्मास्मि, तब केवल मैं ही वर्तमान रहता हूं, मेरे अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं रह जाता। यही बात औरों के विषय में भी है अतएव प्रत्येक ही वही पूर्ण ब्रह्मतत्व है। - स्वामी विवेकानंद
साभार - भारत संधान पत्रिका