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जीवन जीने का आदर्श मिट्टी का दीया!

आत्मा का दीपक भी जलाएं

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- ललित गर्
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हम हर साल दिवाली मनाते हैं। हर घर, हर आंगन, हर बस्ती, हर गांव में सबकुछ रोशनी से जगमगा जाया करता है। आदमी मिट्टी के दीए में स्नेह की बाती और परोपकार का तेल डालकर उसे जलाते हुए भारतीय संस्कृति को गौरव और सम्मान देता है क्योंकि दीया भले मिट्टी का हो मगर वह हमारे जीने का आदर्श है।

हमारे जीवन की दिशा है, संस्कारों की सीख है, संकल्प की प्रेरणा है और लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम है। दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब भीतर का अंधकार दूर हो। भगवान महावीर ने दीपावली की रात जो उपदेश दिया उसे हम प्रकाश पर्व का श्रेष्ठ संदेश मान सकते हैं।

भगवान महावीर की यह शिक्षा मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाली है। तथागत बुद्ध की अमृत वाणी 'अप्पदीवो भवः' अर्थात आत्मा के लिए दीपक बन वह भी इसी भावना को पुष्ट कर रही है। दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है।

हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूर्च्छा को मिटाने के लिए ही नहीं अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।

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हालांकि दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी वह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूर्च्छा के अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली के मौके पर सभी आमतौर से अपने घरों की साफ-सफाई, साज-सज्जा और उसे संवारने निखारने का प्रयास करते हैं।

उसी प्रकार अगर भीतर चेतना के आंगन पर जमे कर्म के कचरे को बुहारकर साफ किया जाए, उसे संयम से सजाने-संवारने का प्रयास किया जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्ज्वलित कर दिया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त हो सकता है।

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महान दार्शनिक संत आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं हमें यदि धर्म को समझना है और वास्तव में धर्म करना है तो सबसे पहले इंद्रियों को बंद करना सीखना होगा। आंखें बंद, कान बंद और मुंह बंद ये सब बंद हो जाएंगे तो फिर नाटक या टीवी देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

यदि आप केवल आधा घंटे के लिए सारी इंद्रियों को विश्राम देकर बिलकुल स्थिर और एकाग्र होकर अपने भीतर झांकना शुरू कर दें और इसका नियमित अभ्यास करें तो एक दिन आपको कोई ऐसी झलक मिल जाएगी कि आप रोमांचित हो जाएंगे। आप देखेंगे भीतर का जगत कितना विशाल है, कितना आनंदमय और प्रकाशमय है। वहां कोई अंधकार नहीं है, कोई समस्या नहीं है।

आपको एक दिव्य प्रकाश मिलेगा। अज्ञान के अंधकार से ब्रह्मा के प्रकाश की सूझ 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की सूझ है। उपनिषद का यह आदर्श वाक्य आज के युग में भी अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनाए हुए है।

आज विज्ञान का युग है। सारी मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है। मनुष्य के सामने अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रश्न बना हुआ है। मानव जाति अंधकार में गिरती जा रही है। विवेकी विद्वान उसे बचाने के प्रयास में लगे भी हैं। सत्य, दया, क्षमा, कृपा, परोपकार आदि के भावों का मूल्य पहचाना जा रहा है। ऐसी स्थिति में उपनिषद का 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' वाक्य उनका मार्गदर्शन करने वाला महावाक्य है।

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