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प्रकृति की पूजा का उत्सव वसंत

अत्‍यधिक लुभावनी है वसंत ऋतु

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हमें फॉलो करें वसंत पंचमी
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वसंत की शुरुआत माघ महीने की शुक्ल पंचमी से हो जाती है। रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने वसंत का अत्‍यंत मनोहारी चित्रण किया है। भगवान कृष्ण ने गीता में 'ऋतुनां कुसुमाकरः' कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है।

कविवर जयदेव तो वसंत का वर्णन करते थकते ही नहीं। सतत्‌ आकर्षक लगने वाला निसर्ग वसंत ऋतु में अत्‍यधिक लुभावना लगने लगता है। अपने अनोखे सौंदर्य के कारण वह मनुष्‍यों को आकृष्ट करता है।

वसंत का उत्सव प्रकृति की पूजा का उत्सव है। सदैव सुंदर दिखने वाली प्रकृति वसंत ऋतु में सोलह कलाओं में दीप्‍त हो उठती है। यौवन हमारे जीवन का मधुमास वसंत है तो वसंत इस सृष्टि का यौवन।

मानव को अपने स्‍वास्‍थ्‍य और जीवन के सौंदर्य के लिए प्रकृति के अनुपम सान्निध्य में जाना चाहिए। निसर्ग में ऐसा जादू है कि मानव की वह समस्‍त वेदनाओं को तत्काल भुला देता है। निसर्ग का सान्निध्य यदि सदैव प्राप्‍त होता रहे तो मानव जीवन पर उसका प्रभाव बहुत ही गहरा होता है।

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निसर्ग में अहंकार नहीं है। अत: वह प्रभु के अत्‍यधिक निकट है। इसी कारण निसर्ग के सान्निध्य में जाने पर हम भी स्‍वयं को प्रभु के अधिक निकट महसूस करते हैं।

सुख-दुःख के समस्‍त द्वंद्वों से परे है - निसर्ग। वसंत हो या वर्षा, अलग-अलग रूपों में प्रभु का हाथ सृष्टि पर फिरता ही रहता है और सम्पूर्ण निसर्ग प्रभु के स्पर्श से निखर उठता है।

जीवन में भी यदि प्रभु का स्पर्श हो तो सम्पूर्ण जीवन ही बदल जाता है। जीवन में वसंत खिल उठेगा, जीवन के दुःख, दैन्य, सब क्षण भर में दूर हो जाएंगे। प्रभु स्पर्शी जीवन में निरंतर एक ही ऋतु का साम्राज्‍य होता है और वह मादक ऋतु है वसंत!

निसर्ग के सान्निध्य से मानव के तन में स्फूर्ति, मन में उल्लास, बुद्धि में प्रसन्नता और हृदय में चेतना की सृष्टि होती है, वसंत मुख्‍य द्वार से प्रविष्‍ट हो रहा है। समग्र सृष्टि सुमधुर प्रतीत होने लगती है। सृष्टि के अनुपम माधुर्य का पान करने के लिए संभवत: दो नेत्र काफी नहीं। सृष्टि की सुंदरता और यौवन की रसिकता का जहां सुमेल हो, वहां निराशा, नीरसता और निष्क्रियता का क्‍या काम।

परंतु निसर्ग की सुंदरता व मानव की रसिकता में यदि प्रभु का स्वर न हो तो वह विलास का मार्ग बनकर मनुष्‍य को विनाश के गर्त में डाल देती है। इसलिए वसंत के संगीत में गीता के स्‍वर होने चाहिए।

वसंत का उत्सव अमर आशावाद का प्रतीक है। वसंत का सच्चा पुजारी जीवन में कभी निराश नहीं होता। पतझड़ में जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते गिर जाते हैं, उसी प्रकार वह अपने जीवन में से निराशा और असफलताओं को झटक देता है। निराशा से घिरे हुए जीवन में वसंत आशा का संदेश लेकर आता है। निराशा के वातावरण में आशा की अनोखी किरण फूट पड़ती है।

भक्ति और शक्ति के सुंदर सहयोग से यह जीवन और प्रकृति सुंदर हो उठते हैं। उसका जीवन मानो गीता का जीवंत भाष्य प्रतीत होने लगता है। जीवन में आने वाले समस्‍त दुःखों को झेलने और सकारात्‍मक दृष्टि से देखने का विवेक उत्‍पन्‍न होता है। वसंत अर्थात आशा व सिद्धि का सुंदर संयोग, कल्पना और वास्तविकता का सुभग समन्वय है। यह निराशा पर आशा और अमंगल पर मंगल की विजय है।

जीवन और वसंत को जिसने एकरूप कर दिया है, ऐसे मानव को हमारी संस्कृति संत कहकर पुकारती है। जो जीवन में वसंत लाए वही संत हैं।

यौवन व संयम, आशा और सिद्धि, कल्पना और वास्तविकता, भक्ति और शक्ति, सर्जन और विसर्जन, इन सबका समन्वय करने वाला और जीवन में सौंदर्य, संगीत और स्नेह का निर्माण करने वाला वसंत हमारे जीवन में साकार हो, तभी यह पता चलेगा कि हमने वास्‍तविक अर्थों में वसंत के सार को समझा और उसे अपने जीवन में उतारा है।

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