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तीर्थस्थली मथुरा

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हिंदू धर्म ग्रंथों में मथुरा की बड़ी महिमा है। अथर्ववेद की गोपालतापनी में लिखा है- मथ्यते तु जगत्सर्वं ब्रह्मज्ञानेन येन वा। तत्सारभूतं यद्यस्यां मथुरा सा निगद्यते॥ अर्थात्‌ जिस ब्रह्मज्ञान एवं भक्तियोग से सारा जगत्‌ मथा जाता है यानी ज्ञानी और भक्तों का संसार लय हो जाता है, वह सारभूत ज्ञान और भक्ति जिसमें सदा विद्यमान रहते हैं, वह मथुरा कहलाती है।

पद्मपुराण में भगवान्‌ का वचन है- अहो न जानन्ति नरा दुराशयाः पुरीं मदीयां परमां सनातनीम्‌। सुरेन्द्रनागेन्द्रमुनीन्द्रसंस्तुतां मनोरमां तां मथुरां पराकृतिम्‌॥ अर्थात्‌ दुष्ट हृदय के लोग मेरी इस परम सुंदर सनातन मथुरा नगरी को नहीं जानते, जिसकी सुरेन्द्र, नागेन्द्र तथा मुनीन्द्रों ने स्तुति की है और जो मेरा ही स्वरूप है।

मथुरा के चारों ओर चार शिव मंदिर हैं- पश्चिम में भूतेश्वर का, पूर्व में पिघलेश्वर का, दक्षिण में रंगेश्वर का और उत्तर में गोकर्णोश्वर का। चारों दिशाओं में स्थित होने के कारण शिवजी को मथुरा का कोतवाल कहते हैं। वाराहजी की गली में नीलवारह और श्वेतवाराह के सुंदर विशाल मंदिर हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने श्री केशवदेवजी की मूर्ति स्थापित की थी पर औरंगजेब के काल में वह रजधाम में पधरा दी गई व औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ डाला और उसके स्थान पर मस्जिद खड़ी कर दी। बाद में उस मस्जिद के पीछे नया केशवदेवजी का मंदिर बन गया है। प्राचीन केशव मंदिर के स्थान को केशवकटरा कहते हैं। खुदाई होने से यहाँ बहुत सी ऐतिहासिक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं।

पास ही एक कंकाली टीले पर कंकालीदेवी का मंदिर है। कंकाली टीले में भी अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं। यह कंकाली वह बतलाई जाती है, जिसे वेदकी की कन्या समझकर कंस ने मारना चाहा था पर वो उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी। मस्जिद से थोड़ा सा पीछे पोतराकुण्ड के पास भगवान्‌ श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है, जिसमें वसुदेव तथा देवकी की मूर्तियाँ हैं, इस स्थान को मल्लपुरा कहते हैं। इसी स्थान में कंस के चाणूर, मुष्टिक, कूटशल, तोशल आदि प्रसिद्ध मल्ल रहा करते थे। नवीन स्थानों में सबसे श्रेष्ठ स्थान श्री पारखजी का बनवाया हुआ श्री द्वारकाधीश का मंदिर है। इसमें प्रसाद आदि का समुचित प्रबंध है। संस्कृत पाठशाला, आयुर्वेदिक तथा होमियोपैथिक लोकोपकारी विभाग भी हैं।

इस मंदिर के अलावा गोविंदजी का मंदिर, किशोरीरमणजी का मंदिर, वसुदेव घाट पर गोवर्द्धननाथजी का मंदिर, उदयपुर वाली रानी का मदनमोहनजी का मंदिर, विहारीजी का मंदिर, रायगढ़वासी रायसेठ का बनवाया हुआ मदनमोहनजी का मंदिर, उन्नाव की रानी श्यामकुंवरी का बनाया राधेश्यामजी का मंदिर, असकुण्डा घाट पर हनुमान्‌जी, नृसिंहजी, वाराहजी, गणेशजी के मंदिर आदि हैं, जिनमें कई का आय-व्यय बहुत है, प्रबंध अत्युत्तम है, साथ में पाठशाला आदि संस्थाएँ भी चल रही हैं। विश्राम घाट या विश्रान्त घाट एक बड़ा सुंदर स्थान है, मथुरा में यही प्रधान तीर्थ है।

भगवान्‌ ने कंस वध के पश्चात्‌ यहीं विश्राम लिया था। नित्य प्रातः-सायं यहाँ यमुनाजी की आरती होती है, जिसकी शोभा दर्शनीय है। यहाँ किसी समय दतिया नरेश और काशी नरेश क्रमशः 81 मन और 3 मन सोने से तुले थे और फिर यह दोनों बार की तुलाओं का सोना व्रज में बांट दिया था। यहाँ मुरलीमनोहर, कृष्ण-बलदेव, अन्नपूर्णा, धर्मराज, गोवर्द्धननाथ आदि कई मंदिर हैं।

यहाँ चैत्र शु. 6 (यमुना-जाम-दिवस), यमद्वितीया तथा कार्तिक शु. 10 (कंस वध के बाद) को मेला लगता है। विश्रान्त से पीछे श्रीरामानुज सम्प्रदाय का नारायणजी का मंदिर, इसके पीछे पुराना गतश्रम नारायणजी का मंदिर, इसके आगे कंसखार हैं। सब्जी मंडी में पं. क्षेत्रपाल शर्मा का बनवाया घंटाघर है। पालीवाल बोहरों के बनवाए राधा-कृष्ण, दाऊजी, विजयगोविंद, गोवर्द्धननाथ के मंदिर हैं।

रामजीद्वारे में श्री रामजी का मंदिर है, वहीं अष्टभुजी श्री गोपालजी की मूर्ति है, जिसमें चौबीस अवतारों के दर्शन होते हैं। यहाँ रामनवमी को मेला होता है। यहाँ पर वज्रनाभ के स्थापित किए हुए ध्रुवजी के चरणचिह्न हैं। यहाँ निम्बार्काचार्य के पूज्य श्री सर्वेश्वर और विश्वेश्वर शालग्राम भी थे जो घटनावश सलेमाबाद में पहुंचा दिए गए हैं। चौबच्चा में वीर भद्रेश्वर का मंदिर, लवणासुर को मारकर मथुरा की रक्षा करने वाले शत्रुघ्नजी का मंदिर, होली दरवाजे पर दाऊजी का मंदिर, डोरी बाजार में गोपीनाथजी का मंदिर है।

आगे चलकर दीर्घ विष्णुजी का मंदिर, बंगाली घाट पर श्री वल्लभ कुल के गुसाइयों के बड़े-छोटे दो मदनमोहनजी के और एक गोकुलेश का मंदिर है। नगर के बाहर ध्रुवजी का मंदिर, गऊ घाट पर प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का श्री राधाविहारीजी का मंदिर, वैरागपुरा में प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के विरक्तों का मंदिर है। इससे आगे मथुरा के पश्चिम में एक ऊंचे टील पर महाविद्या का मंदिर है, उसके नीचे एक सुंदर कुण्ड तथा पशुपति महादेव का मंदिर है, जिसके नीचे सरस्वती नाला है। किसी समय यहाँ सरस्वतीजी बहती थीं और गोकर्णेश्वर-महादेव के पास आकर यमुनाजी में मिलती थीं। श्रीमद्भगवत में जो- एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः।
अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेऽम्बिकावनम्‌॥
तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्‌।
आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च नृपतेऽम्बिकाम्‌॥

एक प्रसंग में यह वर्णन है कि एक सर्प नंदबाबा को रात्रि में निगलने लगा, तब श्रीकृष्ण ने सर्प को लात मारी, जिस पर सर्प शरीर छोड़कर सुदर्शन विद्याधर हो गया। किन्हीं-किन्हीं टीकाकारों का मत है कि यह लीला इन्हीं महाविद्या की है और किन्हीं-किन्हीं का मत है कि अम्बिकावन दक्षिण में है। इससे आगे सरस्वती कुण्ड और सरस्वती का मंदिर और उससे आगे चामुण्डा का मंदिर है।

चामुण्डा से मथुरा की ओर लौटते हुए बीच में अम्बरीष टीला पड़ता है, यहाँ राजा अम्बरीष ने तप किया था। अब उस स्थान पर नीचे जाहरपीर का मठ है और टीले के ऊपर हनुमान्‌जी का मंदिर है। ये सब मथुरा के प्रमुख स्थान हुए। इनके सिवाय और बहुत छोटे-छोटे स्थान हैं। मथुरा के पास नृसिंहगढ़ एक स्थान है, जहाँ नरहरि नाम के एक पहुंचे हुए महात्मा हो गए हैं। इन्होंने 400 वर्ष के होकर अपना शरीर त्याग किया।

मथुरा की परिक्रम
प्रत्येक एकादशी और अक्षयनवमी को मथुरा की परिक्रमा होती है। देवशयनी और देवोत्थापनी एकादशी को मथुरा-वृंदावन की एक साथ परिक्रमा की जाती है। कोई-कोई इसमें गरुड़-गोविंद को भी शामिल कर लेते हैं। वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को रात्रि में परिक्रमा की जाती है, जिसे वनविहार की परिक्रमा कहते हैं।

स्थान-स्थान में गाने-बजाने का तथा पदाकन्दा नाटक का भी प्रबंध रहता है। श्री दाऊजी ने द्वारका से आकर, वसन्त ऋतु के दो मास व्रज में बिताकर जो वनविहार किया था तथा उस समय यमुनाजी को खींचा था, यह परिक्रमा उसी की स्मृति है।

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