Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

रणकपुर का जैन मंदिर

हमें फॉलो करें रणकपुर का जैन मंदिर
राजस्थान में अरावली पर्वत की घाटियों के मध्य स्थित रणकपुर में ऋषभदेव का चतुर्मुखी जैन मंदिर है। चारों ओर जंगलों से घिरे इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है।

वैसे भी राजस्थान अपने भव्य स्मारकों तथा भवनों के लिए प्रसिद्ध है। इनमें माउंट आबू तथा दिलवाड़ा के विख्यात जैन मंदिर भी शामिल हैं। रणकपुर मंदिर उदयपुर से 96 किलोमीटर की दूरी पर है। भारत के जैन मंदिरों में संभवतः इसकी इमारत सबसे भव्य तथा विशाल है।

यह इमारत लगभग 40,000 वर्ग फीट में फैली है। उदयपुर से यहाँ के लिए प्राइवेट बसें तथा टैक्सियाँ उपलब्ध रहती हैं। करीब 600 वर्ष पूर्व 1446 विक्रम संवत में इस मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ था जो 50 वर्षों से अधिक समय तक चला। इसके निर्माण में करीब 99 लाख रुपए का खर्च आया था।

मंदिर में चार कलात्मक प्रवेश द्वार हैं। मंदिर के मुख्य गृह में तीर्थंकर आदिनाथ की संगमरमर से बनी चार विशाल मूर्तियाँ हैं। करीब 72 इंच ऊँची ये मूतियाँ चार अलग दिशाओं की ओर उन्मुख हैं। इसी कारण इसे चतुर्मुख मंदिर कहा जाता है।

इसके अलावा मंदिर में 76 छोटे गुम्बदनुमा पवित्र स्थान, चार बड़े प्रार्थना कक्ष तथा चार बड़े पूजन स्थल हैं। ये मनुष्य को जीवन-मृत्यु की 84 योनियों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं।

मंदिर की प्रमुख विशेषता इसके सैकड़ों खम्भे हैं। इनकी संख्या करीब 1444 है। जिस तरफ भी दृष्टि जाती है छोटे-बड़े आकारों के खम्भे दिखाई देते हैं, परंतु ये खम्भे इस प्रकार बनाए गए हैं कि कहीं से भी देखने पर मुख्य पवित्र स्थल के 'दर्शन' में बाधा नहीं पहुँचती है। इन खम्भों पर सुंदर नक्काशी की गई है।

मंदिर के उत्तर में रायन पेड़ स्थित है। इसके अलावा संगमरमर के टुकड़े पर भगवान ऋषभदेव के पदचिह्न भी हैं। ये भगवान ऋषभदेव तथा शत्रुंजय की शिक्षाओं की याद दिलाते हैं।

मंदिर के निर्माताओं ने जहाँ कलात्मक दो मंजिला भवन का निर्माण किया है, वहीं भविष्य में किसी संकट का अनुमान लगाते हुए कई तहखाने भी बनाए हैं। इन तहखानों में पवित्र मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सकता है। ये तहखाने मंदिर के निर्माताओं की निर्माण संबंधी दूरदर्शिता का परिचय देते हैं।

विक्रम संवत 1953 में इस मंदिर के रख-रखाव की जिम्मेदारी एक ट्रस्ट को दे दी गई थी। उसने मंदिर के पुनरुद्धार कार्य को कुशलतापूर्वक कर इसे एक नया रूप दिया। पत्थरों पर की गई नक्काशी इतनी भव्य है कि कई विख्यात शिल्पकार इसे विश्व के आश्चर्यों में से एक बताते हैं। हर वर्ष हजारों कला प्रेमी इस मंदिर को देखने आते हैं।

कैसे बना रणकपुर
इस मंदिर का निर्माण चार श्रद्धालुओं आचार्य श्यामसुंदरजी, धरनशाह, कुम्भा राणा तथा देपा ने कराया था। आचार्य सोमसुंदर एक धार्मिक नेता थे जबकि कुम्भा राणा मलगढ़ के राजा तथा धरनशाह उनके मंत्री थे।

धरनशाह ने धार्मिक प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर भगवान ऋषभदेव का मंदिर बनवाने का निर्णय लिया था। कहा जाता है कि एक रात उन्हें स्वप्न में 'नलिनीगुल्मा विमान' के दर्शन हुए जो पवित्र विमानों में र्स्वाधिक सुंदर माना जाता है। इसी विमान की तर्ज पर धरनशाह ने मंदिर बनवाने का निर्णय लिया।

मंदिर निर्माण के लिए धरनशाह ने कई वास्तुकारों को आमंत्रित किया। इनके द्वारा प्रस्तुत कोई भी योजना उन्हें पसंद नहीं आई। अंततः मुंदारा से आए एक साधारण से वास्तुकार दीपक की योजना से वे संतुष्ट हो गए।

मंदिर निर्माण के लिए धरनशाह को मलगढ़ नरेश कुम्भा राणा ने उन्हें जमीन दी। उन्होंने मंदिर के समीप एक नगर बसाने का भी सुझाव दिया। मंदिर के समीप मदगी नामक गाँव को इसके लिए चुना गया तथा मंदिर एवं नगर का निर्माण साथ ही प्रारम्भ हुआ। राजा कुम्भा राणा के नाम पर इसे रणपुर कहा गया। जो बाद में रणकपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज का रणकपुर पुरानी विरासत और इसे सहेजकर रखने वालों के बारे में भी संदेश देता है जिनके कारण रणकपुर मात्र एक विचार से वास्तविकता में बदल सका।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi