कैसे ढूंढा चाणक्य ने चंद्रगुप्त को....
चाणक्य का जीवन और भारत का निर्माण- भाग दो
गतांक से आगे...
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तब शकटार और चाणक्य के बीच धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने पर विचार-मंत्रणा हुई। तब चाणक्य ने कहा कि हमें मगध के भावी शासक की खोज करना होगी। बड़े ही विचार और विमर्श करने के बाद शकटार ने बताया कि एक युवक है, जो धनानंद के अत्याचारों से त्रस्त है। उसका नाम है- चंद्रगुप्त...।शकटार ने कहा- मुझे उस बालक में अपार संभावनाएं नजर आईं, जब वह अपने मित्रों के साथ राजा-प्रजा का खेल खेल रहा था जिसमें वह राजा बना हुआ था। वह अन्य बालकों की अपेक्षा सुदृढ़ शरीर और विचारों वाला है। उसमें नेतृत्व क्षमता गजब की है। जब मैं उसका खेल देख रहा था तभी वहां पता नहीं कहां से एक चीता आ धमका और वह मेरी ओर लपका। अन्य बालक इधर-उधर भाग गए, लेकिन उस बालक (चंद्रगुप्त) ने अपनी तलवार निकाली और चीते के मुझ तक पहुंचने से पहले ही वह चीते से भीड़ गया और उसने चीते को धराशायी कर दिया।जब मैंने उसे पूछा- तुम इतने वीर और साहसी कैसे बने? तो वह बोला- मैं राजा बना था, राजा का काम अपनी प्रजा की रक्षा करना होता है इसलिए मैं अकेला ही लड़ा और फिर मुझे राजा धनानंद से भी तो अकेले ही लड़ना है। मैंने पूछा क्यों? उसने कहा, क्योंकि उस क्रूर ने मेरी माता को अपमानित कर मेरी मां को राजभवन से निकाल दिया था।शकटार ने कौटिल्य से कहा- बाद में खोजबीन करने पर पता चला कि वह राजा धनानंद की परमसुंदरी दासी मुरा का पुत्र है। किसी संदेह के कारण धनानंद ने मुरा को जंगल में रहने के लिए विवश कर दिया था। आज वही मुरा जंगल में जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रही है।शकटार से चंद्रगुप्त के बारे में जानने के बाद चाणक्य और भी ज्यादा उत्सुक हो गए और उनके मन में चंद्रगुप्त से मिलने की जिज्ञासा बढ़ गई।
चाणक्य की मुरा से मुलाकात में चंद्रगुप्त की मांग और...
अगले दिन शकटार और चाणक्य ज्योतिष का वेश धरकर उस जंगल में पहुंच गए, जहां मुरा रहती थी और जिस जंगल में अत्यंत ही भोले-भाले लेकिन लड़ाकू प्रवृत्ति के आदिवासी और वनवासी जाति के लोग रहते थे।उक्त आदिवासियों से जब शकटार और चाणक्य ने पूछा कि मुरा और चंद्रगुप्त कहां रहते हैं तो वे उन्हें एक झोपड़ी में ले गए, जहां बहुत ही दरिद्र अवस्था में मुरा बैठी थी, जो अपने किशोर बालक को पत्तल पर भोजन परोस रही थी।झोपड़ी में बहुत ही मामूली-सा सामान था। खजूर के पत्ते, उसी से बने हुए कुछ पंखे, ढांक के पत्ते और उसी से बने कुछ पत्तल-दोने, बांस से बने कुछ तीर-कमान आदि रखे हुए थे। सोने-बिछाने और बैठने के लिए एक चटाई और कुछ आसन और जहां तहां बिखरे टूटे-फुटे बर्तन जो मिट्टी के बने थे।मुरा ने दो अज्ञात अतिथियों को आया देख उनके लिए झोपड़ी के द्वार के पास ही चटाई बिछा दी। किशोर चंद्रगुप्त ने उठकर हाथ थोए और फिर दोनों आगुंतकों के चरण छुए। चाणक्य ने उक्त किशोर को गौर से देखा फिर ध्यान से मुरा को देखा।कुछ देर पश्चात शकटार ने अपने आने का कारण मुरा को बताया। मुरा ने कहा- यही एक पुत्र तो मुझ दुखियारी के जीने का सहारा है इसे आपको कैसे दे दूं?
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तब चाणक्य ने कहा- देवी, तुम धन्य हो जो तुम्हें ऐसा संस्कारवान पुत्र उत्पन्न हुआ। तुमने इस संकट और विपत्ति के समय में भी इसे वीरता और धीरता की शिक्षा दी। आज मगध राजा धनानंद के अत्याचारों से त्रस्त है। ऐसे समय में मगध को एक नए राजा की आवश्यकता है और तुम्हारे पुत्र के ललाट पर हम देख रहे हैं राजयोग।
चाणक्य ने कुछ देर रुककर फिर कहा- मातृभूमि की रक्षा के लिए हमें ऐसे ही वीर, धीर और बुद्धिमान युवक की तलाश है, जो उच्च वर्ग नहीं वरण साधारण वर्ग का हो और जिसमें नेतृत्व क्षमता हो।
मुरा ने लंबी सांस भरकर कहा, लेकिन ब्राह्मण श्रेष्ठ! आपकी बातें तो ठीक हैं फिर भी मैं कैसे अपने एकमात्र पुत्र को राजनीति के खेल में बलिदान करने के लिए दे दूं? क्या आप धनानंद और अमात्य राक्षस को जानते हैं? मैं जानती हूं... उन तक यह खबर पहुंच गई तो...।'
चाणक्य ने बीच में रोकते हुए कहा- कौटिल्य किसी का बलिदान नहीं चाहता। कौटिल्य के होते धनानंद और उसकी सेना चंद्रगुप्त का बाल भी बांका नहीं कर सकती। इसका मैं आपको वचन देता हूं कि आपका ही पुत्र मगध के सिंहासन पर विराजमान होगा।
चाणक्य ने किसी भी तरह मुरा को समझाया। अंत में मुरा ने कहा- मैं अपने कलेजे के टुकड़े को आपको सौंपने के लिए तैयार हूं। अब आप ही इसके संरक्षक और अन्नदाता हैं, बस मैं यह चाहती हूं कि यह दीर्घायु रहे।
यह सारी वार्तालाप चंद्रगुप्त मौन रहकर सुन रहा था।
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मुरा से बात करने के बात चाणक्य ने चंद्रगुप्त की ओर देखा और कहा- अब मैं चाहता हूं कि तुम इस विषय में क्या कहना चाहते हो? क्या मेरे साथ चलोगे या अपना रास्ता अलग बनाओगे?
चंद्रगुप्त- 'स्वामी! मातृभूमि की रक्षा के लिए रास्ते अलग-अलग नहीं हुआ करते। अलग-अलग रास्ते भी एक हो जाते हैं, जैसे सभी नदियां समुद्र में मिलकर शक्तिशाली बन जाती है उसी तरह मुझे भी आपके ज्ञान के समुद्र में मिलने में कोई संकोच नहीं। ...चंद्रगुप्त हर उस परीक्षा के लिए तैयार है जिससे आपका प्रयोजन सिद्ध होता हो। मेरा उद्देश्य सिर्फ अपनी माता के अपमान का बदला लेना है। माता और मातृभूमि की रक्षा के लिए आज से मैं आपका दास बनने का संकल्प लेता हूं।
यह सुनकर चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपने हृदय से लगा लिया। फिर मुरा को प्रणाम किया और उन्हें 1,000 कार्षापण दिए और फिर शकटार के साथ झोपड़ी से बाहर आ गए। अब वे दो नहीं, बल्कि तीन थे। शकटार तो अपने भवन की ओर चले गए, लेकिन चंद्रगुप्त को लेकर चाणक्य किसी अज्ञात स्थान पर चले गए।
चाणक्य ने क्या सिखाया चंद्रगुप्त को, जानिए अगले पन्ने पर...
चाणक्य ने क्या सिखाया चंद्रगुप्त को, जानिए अगले पन्ने पर...
धनानंद साम्राज्य से टक्कर लेना कोई आसान खेल नहीं था। राक्षस और कात्यायन जैसे कुटिल नीतिज्ञ और धनानंद जैसे क्रूर शासक के होते हुए सिकंदर जैसा योद्धा भी व्यास-सतलुज से लौट गया था। कोई भी शासक धनानंद से टकराने का साहस नहीं करता था, क्योंकि उसके पास सेना में 2,00,000 पैदल सेना, 20,000 घुड़सेना, 2,000 रथ और 3,000 हाथी थे। ऐसे में धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने का साहस कौन कर सकता था? इसके लिए कठिन तैयारी, सैन्य शक्ति और जन-समर्थन की आवश्यकता की जरूरत थी।
चाणक्य ने अपनी नीति के अनुसार चंद्रगुप्त को पहले शास्त्र सिखाए फिर अस्त्र-शस्त्र और फिर राजनीति और गोपनीयता का पाठ पढ़ाया। इसके बाद धैर्य और तुरंत निर्णय लेने की क्षमता के लिए ध्यान कराया और फिर जब चंद्रगुप्त अच्छे से तैयार हो गया, तब उन्होंने एक दिन उसे बुलाकर कहा- तुम्हारी परीक्षा का समय आ गया है। अब तुम्हें परीक्षा देनी है।
चंद्रगुप्त ने चाणक्य को प्रणाम किया और फिर कहा- हे गुरु श्रेष्ठ! आप आज्ञा कीजिए। आपने मुझे हर तरह की परीक्षा के लिए तैयार किया है। आपके कारण मेरा जो आत्मविश्वास बढ़ा है अब मैं धनानंद से टक्कर लेने के लिए तैयार हूं।
चाणक्य ने कहा- जाओ फिर से उसी जंगल में, जहां से तुम आए हो। आदिवासियों और जनजातियों के लोगों को इकट्ठा करो और उनमें से योद्धाओं को चुनो और एक 'राष्ट्रीय सेना' का गठन करो। आदिवासियों में जनचेतना जाग्रत करो, लेकिन ध्यान रहे... ये कार्य बहुत ही गुप्त तरीके से करना है। जब यह कार्य संपन्न हो जाए, तब तुम मेरे पास आना।
चाणक्य को प्रणाम करते हुए चंद्रगुप्त ने कहा- जो आज्ञा गुरुदेव। और चंद्रगुप्त ने अपने तीर-कमान उठाए, तलवार को कमर में खोसा और घोड़े पर सवार होकर फिर से उसी जंगल की ओर चल दिए। अब वे किशोर नहीं युवा चंद्रगुप्त थे।
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चंद्रगुप्त के जाने के बाद चाणक्य ने एक संन्यासी का वेश धरा और अपना नाम रखा- वात्स्यायन। और उन्होंने अपने कुछ शिष्यों के साथ मिलकर शहर और ग्रामीण इलाके में यह घोषणा करा दी कि धर्म और नीति के महापंडित आचार्य वात्स्यायन जन-जागरण और धर्म की रक्षा का संदेश लेकर देशभर की यात्रा पर निकले हैं और वे हमारे राज्य मगध में भी प्रवेश कर रहे हैं। आचार्य वात्स्यायन चौराहे और बस्ती में लोगों को धर्म की शिक्षा देंगे। आशा है कि आप महापंडित से मुक्ति और शांति लाभ प्राप्त करेंगे।
इस तरह मगध की राजधानी तक्षशिला में चाणक्य ने वेश बदलकर लोगों में धर्म की आड़ में जन-जाग्रति फैलाई और अप्रत्यक्ष रूप से धनानंद के प्रति फैले गुस्से को अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वे लोगों में चेतना जगाते और गुपचुप तरीके से नवयुवकों से कहते- तुम्हें 'राष्ट्रीय सेना' में शामिल होना चाहिए।
शहर और ग्रामीण इलाकों में वात्स्यायन प्रवचन के लिए लोगों को इकट्ठा करते और धनानंद के शासन से त्रस्त नागरिकों को धनानंद के खिलाफ राष्ट्रीय सेना में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत उनके भाषण इतने ओजस्वी होते थे कि लोग उनके पीछे-पीछे हो लेते थे। हजारों की संख्या में लोग उनके शिष्य बनते गए। वात्यायन ने साधु बने युवकों को भी भारत के प्रति बलिदान देना का आह्वान किया और इस तरह धीरे-धीरे उन्होंने लोगों का एक राष्ट्रीय संगठन बना लिया।
इस तरह एक और जहां चंद्रगुप्त आदिवासियों और वनवासियों के बीच सेना के गठन में लग गए, वहीं चाणक्य ने शहरी और शहर से लगे ग्रामीण इलाकों के लोगों में जन-जाग्रति फैलाकर एक नई गुप्त सेना का गठन कर लिया। दोनों ने लोगों को मगध की वास्तविक स्थिति और विदेशी आक्रमण और विदेशियों द्वारा हड़पी गई भारत-भूमि के बारे में बताना शुरू किया।
धीरे-धीरे चंद्रगुप्त के प्रभावशाली व्यक्तित्व और नेतृत्व क्षमता के बल पर लोग उनमें भावी राजा के लक्षण देखने लगे। 'राष्ट्रीय सेना' में युवकों की संख्या बढ़ने लगी। सभी के बीच राष्ट्र भावना जाग्रत होने लगी। सभी राष्ट्र आराधन करने लगे। राष्ट्रगीत गाने लगे। शहर और ग्रामीण इलाके के नवयुवक भी राष्ट्रीय सेना में शामिल होकर जंगल में अस्त्र और शस्त्र विद्या सीखने लगे और देखते ही देखते समूचा आदिवासी और जंगल का इलाका युद्ध कला में पारंगत योद्धाओं की शरणस्थली के रूप में बदल गया और तक्षशिला के आसपास जंगलों में गुप्त रूप से एक समानांतर सेना हलचल में आ गई थी।
जब भेद खुला चाणक्य की कूटनीति का तब...अगले पन्ने पर...
अंत में मगध के पटल पर वात्सायन के ओजस्वी भाषण और चंद्रगुप्त की नेतृत्व क्षमता के बल पर एक 'राष्ट्रीय सैन्य शक्ति' का उभार सभी को दिखने लगा और इस राज्य से पृथक इस सेना की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी।
गुप्तचर दौड़ता हुआ कात्यायन और राक्षस के पास आया- 'अमात्य की जय हो। राज्य के खिलाफ षड्यंत्र किया जा रहा है और अब कुछ करने का समय आ गया है, हे मगध रक्षक।' मगध के राजा धनानंद की नींद टूट गई। मंत्री राक्षस और कात्यायन के कान खड़े हो गए।
राक्षस ने अपनी मुट्ठी को हथेली पर मारते हुए कहा- जिस व्यक्ति को हम संन्यासी समझते थे वह तो षड्यंत्रकारी राजनीतिज्ञ निकला। अब यदि हमने उस दुष्ट के खिलाफ कुछ किया तो जनता विद्रोह कर देगी, क्योंकि जनता उसे धार्मिक संन्यासी समझती है। इसका मतलब वह ढोंगी संन्यासी जानता था कि जनता धर्म के नाम पर विद्रोह कर देगी?
अगले पन्ने पर, तब राक्षस ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई...
मंत्रिमंडल की आपात बैठक में धनानंद, कात्यायन, राक्षस सहित सभी इलाकों के प्रधान शामिल हुए और गहन मंत्रणा के बाद घोषणा की गई कि किसी भी तरह राज्य की सुरक्षा हम लोगों की जिम्मेदारी है। हमें यह सुनिश्चित करना है कि यह संन्यासी चाहता क्या है। यदि यह राजद्रोह भड़काकर शासन हड़पना चाहता है तो यह हमारे लिए चुनौती है।
राक्षस ने सभी को संबोधित करते हुए कहा- ऐसे किसी भी कृत्य को सख्ती से कुचलना सभी संघों और सेनापतियों की जिम्मेदारी है। सभी को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अब इस तरह की किसी भी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों को राज्य में संचालित नहीं किया जाए।
और इस तरह राज्य में षड्यंत्र और हत्याओं का दौरा शुरू हो गया... चाणक्य को उसी के तरीके से जवाब देने के तरीके अपनाए जाने लगे।
आगे की कहानी अगले अंक में...