-विट्ठल नागर
देश का बाजार पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से अछूता नहीं रह सकता। अगर खरीदी के प्रति विदेशी निवेशकों की दिलचस्पी कम होगी तो बेचान बढ़ना अस्वाभाविक नहीं है। फिर भी सही उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि एफ एंड ओ (फ्यूचर्स एंड ऑप्शन) के कामकाज में शार्ट सेलिंग के सौदे अगले (दिसंबर) सेटलमेंट में ले जाए जाते हैं या नहीं। अगर ये सौदे काटे नहीं जाते एवं उन्हें अगले माह के कामकाज में ले जाया जाता है तो स्पष्ट ही स्थिति गिरावट की रह सकती है।
क्या बाजार अपनी आदत के अनुसार गिरकर पुनः तेजी से ऊपर उठेगा? क्या केंद्र सरकार शेयर बाजार के कामकाज पर एसटीटी (सिक्युरिटी ट्रेडिंग टैक्स) बढ़ा रही है? क्या यह करेक्शन है? कहीं मंदड़िए तो बाजार पर हावी नहीं हो गए हैं, एफआईआई के बेचान का लाभ उठाकर? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका उत्तर एकदम से सही-सही देना संभव नहीं है, क्योंकि चार्टिस्टों के अनुसार सेंसेक्स अभी ट्रेडिंग जोन में है एवं देश के आर्थिक घटक भी अच्छे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि देश का बाजार पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से अछूता नहीं रह सकता। अगर खरीदी के प्रति विदेशी निवेशकों की दिलचस्पी कम होगी तो बेचान बढ़ना अस्वाभाविक नहीं है। फिर भी सही उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि एफ एंड ओ (फ्यूचर्स एंड ऑप्शन) के कामकाज में शार्ट सेलिंग के सौदे अगले (दिसंबर) सेटलमेंट में ले जाए जाते हैं या नहीं।
अगर ये सौदे काटे नहीं जाते एवं उन्हें अगले माह के कामकाज में ले जाया जाता है तो स्पष्ट ही स्थिति गिरावट की रह सकती है। संभवतया इसीलिए शेयर बाजार का कामकाज करने वाले अब पुनः फंडामेंटल्स के साथ शेयरों के ऊँचे भावों का मूल्यांकन करने लगे हैं। भाव के री-रेटिंग की संभावना घट गई है। लिहाजा एफ एंड ओ के कामकाज का वाल्यूम भी घट रहा है।
17 अक्टूबर 2007 के पूर्व तक कारोबारियों को ऊँचे मूल्य से परहेज नहीं था और उन्हें लगता था कि मूल्य और बढ़ेंगे, किंतु अब लगता है कि उनका मानस बदल गया है। अगर किसी सत्र में भाव बढ़ेंगे तो भी उन्हें एकदम घटने में अधिक समय नहीं लगेगा। बुधवार के सत्र में ही एफआईआई ने 2008 करोड़ रु. का बेचान किया था। जब से सेबी ने पार्टिसिपेटरी नोट्स (पीएन) आधारित नए कामकाज को प्रतिबंधित किया है एवं उसके पुराने कामकाज के सौदों को काटने का 18 माह का समय दिया है- तब से अर्थात 17 अक्टूबर से बाजार पर गिरावट की काली छाया मँडरा रही थी।
17 अक्टूबर से 20 नवंबर तक एफआईआई द्वारा 3308 करोड़ रु. का बेचान हो चुका है। फिर खतरे की बात यह भी है कि नए एफआईआई के पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) का कामकाज अब नहीं जैसा ही है। अर्थात बाजार की प्रवाहिता में कमी हो सकती है। दूसरी ओर बाजारियों का एक समूह ऐसा भी है, जिसका मानना है कि बाजार अभी भी ट्रेडिंग जोन में है। इसलिए वे अधिक चिंतित नहीं हैं। उनका मानना है कि 2007 की समाप्ति का माह निकट है। ऐसे में मुनाफा क्लीयर करके अपनी बैलेंसशीट को सँवारना हर कोई चाहेगा। इससे बेचान में कुछ वृद्धि होना स्वाभाविक है।
सही बात यह भी है कि जब भी देश के अंतरबैंक विदेशी मुद्रा (फॉरेक्स) बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपए के मूल्य में मजबूती आती है तब शेयर बाजार के सेंसेक्स में भी तेजी आती है। इसके दो कारण हैं- (1) एफआईआई अपने आवंटन के डॉलर लाती, जिससे खरीदी बढ़ने की आशा बनती है एवं (2) डॉलर की आवक से रुपए को अधिक मजबूत होने देने के उद्देश्य से रिजर्व बैंक डॉलर खरीदती है रुपए जारी करके। इससे अर्थव्यवस्था में प्रवाहिता बढ़ती है, जिससे बैंकें निवेशकों को अधिक कर्ज देती हैं।
इससे शेयर बाजार में प्रवाहिता बढ़ती है, खरीदी को बल मिलता है एवं शेयरों के भाव बढ़ते हैं। इन दिनों देश में डॉलर की आवक कम पड़ गई है, जिससे डॉलर के मुकाबले में रुपए के विनिमय मूल्य में गिरावट आई है। यही गिरावट शेयर बाजार के सेंसेक्स को गिराने में सहायक बन गई है। लिहाजा सेंसेक्स में तेजी के लिए डॉलर की आवक बढ़ने का इंतजार करना पड़ सकता है।
वैश्विक स्थिति ऐसी नहीं है कि जिससे डॉलर की आवक में जोरदार वृद्धि हो। आवक न बढ़ने के कारणों में मुख्य हैं- (1) खनिज तेल (क्रुड ऑइल) के वैश्विक भाव 100 डॉलर प्रति बैरल की ऊँचाई लाँघने के लिए तैयार लगते हैं, जिससे दुनिया भर के बाजारों में हड़कंप मच गया है। (2) बाजार में भय यह भी है कि उत्तरी गोलार्ध के देशों में ठंड बढ़ने से कहीं ऊर्जा (गैस या पेट्रोल) की उपलब्धि माँग की तुलना में कम न पड़ जाए। (3) वैश्विक बाजार में अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में डॉलर के भाव तेजी से घट रहे हैं, जो कि खनिज तेल के भाव बढ़ाने में 'आग में घी' का काम कर रहे हैं।
खनिज तेल के बढ़ते भाव से न केवल अमेरिका में वरन योरप व जापान में आर्थिक मंदी की स्थिति बन सकती है, क्योंकि इससे औद्योगिक उत्पादन की लागत बढ़ती है एवं उपभोक्ता माँग घटती है। एक ओर डॉलर की हालत खस्ता है तो दूसरी ओर 'सबप्राइम' के घोटाले से अमेरिका, योरप एवं पूर्वी एशिया के वित्तीय बाजार को डाँवाडोल कर दिया है। इसकी काली छाया भारत जैसे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश पर भी पड़ रही है। डॉलर के कमजोर बनने से वैश्विक बाजार में पौंड-स्टर्लिंग, यूरो व येन के भाव बढ़ रहे है,ं जिससे ब्रिटेन, योरप तथा जापान के निर्यात पर असर पड़ सकता है।
यह असर उभरते हुए बाजारों में तरलता घटा सकता है। ऐसे में देश के शेयर बाजार का सेंसेक्स अगर कुछ स्थिरीकरण के दौर में आता है तो उसकी वजह है वैश्विक बाजार में बदलते परिदृश्य का आकलन करना। आकलन के बाद संभव है कि बाजार कुछ सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया अपनाए, किंतु फिलहाल यही कह सकते हैं कि परिदृश्य अच्छा नहीं है।