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सरोज कृष्णदास नीमा
'सांझी पर्व' मालवा व निमाड़ अंचल का प्रमुख पर्व है, जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात पूरे श्राद्ध पक्ष में सोलह दिनों तक मनाया जाता है।
हमारा देश त्योहारों का देश है। समय-समय पर अनेक त्योहार मनाकर हम अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखते हैं। इन्हीं त्योहारों में एक खास पर्व 'सांझी पर्व' है। यह मालवा व निमाड़ अंचल का प्रमुख पर्व है, जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात पूरे श्राद्ध पक्ष में सोलह दिनों तक मनाया जाता है।
कुँआरी बालाएँ गोबर से दीवार लीपकर गोबर से ही संझादेवी की कलाकृतियाँ बनाती हैं। इसे फूल, पत्ती व रंगीन चमकीले कागजों से सजाया जाता है। प्रतिदिन शाम को कन्याएँ घर-घर जाकर संझादेवी के गीत गाती हैं एवं प्रसाद वितरण करती हैं। प्रसाद ऐसा बनाया जाता है जिसे कोई ताड़ (बता) न सके। जिस कन्या के घर का प्रसाद ताड़ नहीं पाते उसकी प्रशंसा होती है।
इस पर्व में जो गीत गाए जाते हैं, उनकी बानगी इस प्रकार है :
संझा बाई को छेड़ते हुए लड़कियाँ गाती हैं-
'संझा बाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी
असो कई लाया दारिका, लाता गोट किनारी का।'
'संझा तू थारा घर जा कि थारी माँ
मारेगी कि कूटेगी
चाँद गयो गुजरात हरणी का बड़ा-बड़ा दाँत,
कि छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा।'
'म्हारा अंगना में मेंदी को झाड़,
दो-दो पत्ती चुनती थी
गाय को खिलाती थी, गाय ने दिया दूध,
दूध की बनाई खीर
खीर खिलाई संझा को, संझा ने दिया भाई,
भाई की हुई सगाई, सगाई से आई भाभी,
भाभी को हुई लड़की, लड़की ने मांडी संझा'
'संझा सहेली बाजार में खेले, बाजार में रमे
वा किसकी बेटी व खाय-खाजा रोटी वा
पेरे माणक मोती,
ठकराणी चाल चाले, मराठी बोली बोले,
संझा हेड़ो, संझा ना माथे बेड़ो।'
संझा बाई को ससुराल जाने का संदेश भी दिया जाता है-
'छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाय,
जिसमें बैठी संझा बाई सासरे जाय,
घाघरो घमकाती जाय, लूगड़ो लटकाती जाय
बिछिया बजाती जाय'।
'म्हारा आकड़ा सुनार, म्हारा बाकड़ा सुनार
म्हारी नथनी घड़ई दो मालवा जाऊं
मालवा से आई गाड़ी इंदौर होती जाय
इसमें बैठी संझा बाई सासरे जाय।'
'संझा बाई का सासरे से, हाथी भी आया
घोड़ा भी आया, जा वो संझा बाई सासरिये,'
संझा बाई जवाब देती है-
'हूँ तो नी जाऊँ दादाजी सासरिये'
दादाजी समझाते हैं-
'हाथी हाथ बँधाऊँ, घोड़ा पाल बँधाऊँ,
गाड़ी सड़क पे खड़ी जा हो संझा बाई सासरिये।'
गीत के अंत में भोग लगाकर गाते हैं-
'संझा तू जिम ले,
चूढ ले मैं जिमाऊँ सारी रात,
चमक चाँदनी सी रात,
फूलो भरी रे परात,
एक फूलो घटी गयो,
संझा माता रूसी गई,
एक घड़ी, दो घड़ी, साढ़े तीन घड़ी।'
अंत के पाँच दिनों में हाथी-घोड़े, किला-कोट, गाड़ी आदि की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। सोलह दिन के पर्व के अंत में अमावस्या को संझा देवी को विदा किया जाता है।