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खाना पकाने में भी महारत हासिल थी दादा ध्यानचंद को

सीमान्त सुवीर

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सोमवार, 5 अगस्त 2013 के दिन जैसे ही संसद के गलियारे से यह खबर बाहर आई है कि खेल मंत्रालय ने हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' देने की सिफारिश कर दी है, तब से न जाने क्यूं देश के राष्ट्रीय खेल 'हॉकी के जादूगर' के प्रति फैसला लेने वालों को बधाई देने का मन कर गया।

यह दीगर बात है कि दादा ध्यानचंद को मरणोपरांत यह सम्मान देने की बारी बहुत देरी से आ रही है। ...और यह भी दूसरी बात है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने वाले राजनेताओं को 1979 में कोमा में जाने से दादा की मौत के बाद उन्हें 'भारत रत्न से' देने का फैसला लेने में 34 साल का वक्त लग गया...

हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद के राजपूत घराने में 29 अगस्त 1905 को हुआ था। उनके पिता सामेश्वर दत्त सिंह भारतीय फौज में सूबेदार थे। सेना में रहते हुए उन्होंने भी हॉकी में अपने जौहर दिखलाए। मूलसिंह और रूपसिंह ध्यानचंद के दो भाई थे।

ध्यानचंद की तरह रूपसिंह का भी हॉकी का जाना-माना चेहरा थे। पिता के तबादले के कारण ध्यानचंद ढंग से किताबों में मन नहीं लगा सके। यही वजह थी कि छठी कक्षा के बाद ही उन्हें पढ़ाई को अलविदा कहना पड़ा। कालांतर में पूरा परिवार झांसी आकर बस गया और झांसी से इतना प्यार मिला कि वे यहीं के होकर रह गए। पूरी दुनिया यही मानती रही कि ध्यानचंद झांसी के ही रहने वाले थे।

बहुआयामी व्यक्तित्व : बहुमुखी प्रतिभा की तरह ही ध्यानचंद का व्यक्तित्व भी बहुआयामी था। जितना मजा उन्हें शिकार करने में आता था, (उस दौर में आखेट पर प्रतिबंधित नहीं था।) उतनी ही दिलचस्पी वे मछली पकड़ने में लेते थे। आपको यह जानकर हैरत होगी कि ध्यानचंद को खाना पकाने में भी महारत हासिल थी। दोस्तों के बीच भोजन बनाना और उसे परोसना ध्यानचंद को आनंद देता था। मांसाहार के शौकीन ध्यानचंद को मटन और मछली से बनने वाले व्यंजन काफी प्रिय थे।

हॉकी के अलावा बिलियर्ड्स ध्यानचंद का पसंदीदा खेल था। वे हमेशा अपनी पारंपरिक कला में ही बिलियर्ड्स खेलते थे। हॉकी से संन्यास लेने के बाद वे झांसी में अकसर देर रात तक बिलियर्ड्स खेला करते थे।

इतना ही नहीं क्रिकेट में भी ध्यानचंद का हाथ काफी मजबूत था। पटियाला के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स (एनआईएस) में वे बहुधा बच्चों के बीच गेंद-बल्ला थामे दिखाई दे जाते थे। बाद में अपने बेटे अशोक के साथ कैरम पर भी उन्होंने खूब अंगुलियाँ चलाईं। फोटोग्राफी के दीवाने इस खिलाड़ी के पास महंगा कैमरा खरीदने के पैसे नहीं होते थे, इसलिए वे काफी पुराने कैमरे से ही अपनी हसरत पूरी किया करते थे।

दादा ध्यानचंद का महू से रिश्ता : इंदौर के समीप महू में जब भी ध्यानचंद आते तो उनका ठिकाना 1948 की ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता हॉकी टीम के कप्तान किशनलाल का घर होता था। यहां पर देर रात वे आते और अम्मा (किशनदादा की पत्नी सुन्दरबाई) के हाथ का बना खाना पसंद करते थे। वे किसी बड़े होटल में नहीं रुकते और न ही महू की ऑफिसर मैस में खाना खाते। ध्यानचंद से जुड़ी यादें आज भी सुन्दरबाई के जेहन में जिंदा है।

अब यह भी जान लीजिए कि सुंदरबाई के पति यानी किशनलाल कौन थे। आज की जनरेशन से पूछो कि महू के किशनदादा को जानते हो तो वो कंधे उचकाकर आपसे ही पूछेगा कि ये कौन हैं? पहले तो नाम नहीं सुना? फिर उसे बताना पड़ेगा कि किशनलाल उस भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे, जिसने 1947 में स्वंत्रता मिलने के बाद 1948 के लंदन ओलंपिक खेलों में भाग लिया था और इंग्लैंड जाकर ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता था।

दम तोड़ता दादा का सपना : 1979 में दादा ध्यानचंद की कोमा में जाने के बाद मौत हुई लेकिन जब तक वे होश में रहे, भारतीय हॉकी के प्रति चिंतित रहे। अपने बेटे अशोक से हमेशा कहते थे कि मेरा यही सपना है कि भारतीय हॉकी एक बार फिर स्वर्णिम युग में पहुँचे। अब मेरे बूढ़े शरीर में भले ही दम नहीं रहा हो लेकिन मैं भारत की हॉकी को सम्मानजनक स्थिति में देखना चाहता हूँ ताकि खुद को जवान महसूस कर सकूं।

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