क्रिकेट वर्ल्डकप का काला कोना!
सीमान्त सुवीर
जिन लोगों के बच्चे जरूरत से ज्यादा क्रिकेट विश्वकप में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और आम दिनों की बजाय अधिक जेबखर्च की माँग कर रहे हैं तो उन्हें सावधान हो जाना चाहिए। इस तरह के बच्चों के माता-पिता को ये भी नजर रखनी चाहिए कि आखिर क्रिकेट के मौसम में उनके बच्चों का खर्च यकायक इतना बढ़ क्यों गया? यही नहीं, अच्छे पालक के नाते यदि बच्चों की जेबों में नोट की गड्डियाँ मिलें तो सख्ती से उसके बारे में भी जरूर जानकारी हासिल करना चाहिए।क्या क्रिकेट वर्ल्डकप का बच्चों पर गलत असर पड़ रहा है? या यूँ कहें कि वह उन्हें भटका रहा है? यदि आपको लगता है कि ऐसा नहीं है तो भारतीय उद्योग एवं वाणिज्य संगठन 'एसोचैम' के महासचिव डीएस रावत ने जो सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की है, उस पर एक बार जरूर नजर डाल लें। इससे आपकी आँखों पर पड़ा पर्दा जरूर हट जाएगा। इस चौंकाने वाली रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्वकप के कारण स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी जमकर सट्टेबाजी करना सीख गए हैं। देश के सात बडे शहरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़, हैदराबाद, बेंगलुरु और अहमदाबाद में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि बच्चे अपनी पॉकेट मनी या फिर पार्टटाइम काम करके जो कमा रहे हैं, उसका बहुत बड़ा हिस्सा क्रिकेट की सट्टेबाजी में खर्च कर रहे हैं।रातों रात अमीर बनने की चाहत में बच्चों की ये नादानियाँ आगे चलकर विकराल रूप भी ले सकती हैं। वर्ल्डकप जब शुरू भी नहीं हुआ था, तब क्रिकेट के सट्टेबाजों ने अनुमान लगाया था कि इस विश्वकप में एक लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा का सट्टा लगेगा, लेकिन अब लगता है कि ये आँकड़ा भी छोटा पड़ने लगा है। सट्टेबाजों ने ये पूर्वानुमान नियमित रूप से सट्टा लगाने वालों के रुझान को देखकर लगाया गया था, लेकिन इसमें स्कूल-कॉलेज के बच्चों के शामिल होने के बाद तो रकम न जाने कितनी बढ़ गई होगी।हालाँकि रिपोर्ट में यह खुलासा नहीं किया कि सर्वेक्षण में किस वर्ग के विद्यार्थियों को शामिल किया गया है, लेकिन इसमें कोई दो मत नहीं कि इसमें सभी वर्ग के बच्चे शामिल होंगे। हाँ, इतना जरूर है कि वे अपनी जेब के 'वजन' के हिसाब से सट्टेबाजी करते होंगे। लेकिन, यह तो तय है कि जो माता-पिता अपने बच्चों को मोटी पॉकेट मनी देते हैं, वे जरूर सट्टेबाजी में अपनी पॉकेट हलकी कर रहे हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के छात्र सट्टेबाजी पर सबसे ज्यादा पैसा लगा रहे हैं। वे सट्टेबाजी पर 5000 से 80000 रुपए खर्च कर रहे हैं। मुंबई के छात्र 10000 से 60000 और चंडीगढ़ के छात्र 10000 से 40000 रुपए लगा रहे हैं। इस मामले में चौथे नंबर पर अहमदाबाद, पाँचवें नंबर पर कोलकाता, छठे पर बेंगलुरु और आखिर में हैदराबाद के छात्रों का नंबर आता है।महानगरों में रहने वाले लोग अपने काम में इस कदर व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता है कि बच्चे कर क्या रहे हैं? उन्हें सिर्फ उनकी परीक्षा के रिजल्ट से सरोकार होता है। वे नहीं जानते कि उनके बच्चे को सट्टे का चस्का लग चुका है। जरूरी नहीं है कि क्रिकेट सट्टेबाजी के खेल में लगाया गया दाँव हारा ही जाए। जीत के बाद आने वाले पैसों का उपयोग किस तरह किया जा सकता है, इसे बताने की जरूरत नहीं है।यह बताना भी जरूरी है कि महानगरों के 'अति धनी' स्कूल कॉलेज के बच्चों की फेवरेट भी टीम इंडिया ही है और सचिन तेंडुलकर टूर्नामेंट के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी। इन्हीं सबसे ज्यादा पर सट्टा लगाया जा रहा है। भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्रसिंह धोनी और सचिन तेंडुलकर जहाँ एक तरफ देश के शिक्षा अभियान प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ कुछ धनी बच्चे स्कूल-कॉलेज में सट्टे जैसी बीमारी को गले लगाने की शुरुआत कर चुके हैं। धोनी-सचिन ने सोचा भी नहीं होगा कि क्रिकेट का खेल भारत के महानगरों में रहने वाले बच्चों को इस नर्क में धकेलने की शुरुआत करेगा।इस देश के कई नौजवानों में बहुत जल्दी अमीर बनने की एक अंधी दौड़ चल पड़ी है। इस तरह के नौजवानों की सोच शायद इसलिए उपजी होगी कि जब शेयर बाजार एक दिन में लाखों के वारे-न्यारे कर सकता है तो क्रिकेट का सट्टा बाजार भी उनकी किस्मत को एक ही दिन में चमकाने का दम रखता है। लेकिन, वे नहीं जानते कि थोड़े से लालच में वे किस अंधे कुएँ की तरफ अपने पैर बढ़ा रहे हैं, जहाँ बरबादी के सिवा उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।वक्त अभी भी संभलने का है। बच्चों का मन कोमल और भावुक होता है, माँ-बाप की थोड़ी सी सख्ती और अनुशासन क्रिकेट सट्टा बाजार में कदम रख चुके छात्रों के कदम वापस खींच सकती है। जरूरत आपके जागने की है। इंडिया का और सचिन का जो हाल वर्ल्डकप में होना है, वह तो होगा ही, कम से कम आपका अपना बच्चा तो इस बुराई से दूर रहे। याद रखें कि आज के बच्चे आने वाले कल के 'भारत' का भविष्य हैं। थोड़ा सा लालच आपकी उम्र भर की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है...