सिद्धों द्वारा सेवित होने के कारण इसका नाम सिद्धासन है। ध्यान की अवस्था में अधिकतर साधु इसी आसन में बैठते हैं।
आसन विधि- दंडासन में बैठकर पहले बाएँ पैर को मोड़कर एड़ी को गुदा द्वार एवं यौन अंगों के मध्य भाग में रखा जाता है। दाहिने पैर की एड़ी को यौन अंग के ऊपर वाले भाग पर स्थिर करें। बाएँ पैर के टखने पर दाएँ पैर का टखना होना चाहिए। पैरों के पंजे, जंघा और पिण्डली के मध्य रहे। घुटने जमीन पर टिकाकर रखें। दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा (तर्जनी एवं अँगूठे के अग्रभाग को स्पर्श करके रखें, शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रहेंगी) की स्थिति में घुटने पर टिके हुए हों। मेरुदंड सीधा रखें।सावधानी- रीड़ सीधी रखे तथा ज्ञानमुद्रा में हाथों को भी सीधा रखें। चेहरे पर किसी भी प्रकार का तनाव न आने दें तथा चेहरे की माँसपेशियों को ढीला छोड़कर ध्यान को भूमध्य (आइब्रो के मध्य) में एकाग्र करें। आसन की विधि किसी योग शिक्षक से अच्छे से समझकर ही करें।इसके लाभ- यह आसन ब्रह्मचर्य की रक्षा करता है। कामवासना को शांत कर मन को चंचलता से दूर रखता है। बवासीर तथा यौन रोगों में यह आसन बहुत ही लाभप्रद माना गया है।