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जन्म लग्न से जानें पुनर्जन्म प्रक्रिया

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- कन्हैयालाल मंगलानी

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एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। भौतिक शरीर में अशरीरी आत्मा वास करती है और आत्मा के मुख्य मन, बुद्धि और संस्कार होते हैं। मन भौतिक जगत की घटनाओं से शरीर में विद्यमान इन्द्रियों के माध्यम से प्रभावित होता है।

प्राचीनकाल से ही हमारे ग्रंथों में पुनर्जन्मवाद के सूत्र मिलते हैं। पुनर्जन्म की अवस्था में व्यक्ति को पूर्व जन्म की कई बातें याद रहती हैं। किसी अबोध बालक या किसी युवती द्वारा अपने पूर्व जन्म की बातें बताने के जो वृत्तांत पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित होते हैं, पुनर्जन्म को वहीं तक सीमित कर दिया जाता है। पुनर्जन्म भारतीय संदर्भों में एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।

वेदों में पुनर्जन्म को मान्यता है। उपनिषदकाल में पुनर्जन्म की घटना का व्यापक उल्लेख मिलता है। योगदर्शन के अनुसार अविद्या आदि क्लेशों के जड़ होते हुए भी उनका परिणाम जन्म, जीवन और भोग होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार 'अथ त्रिविध दुःखात्यन्त निवृति ख्यन्त पुरुषार्थः।' पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा के शरीर, इन्द्रियों तथा विषयों से संबंध जुड़े रहते हैं। न्याय दर्शन में कहा गया है कि जन्म, जीवन और मरण जीवात्मा की अवस्थाएँ हैं। पिछले कर्मों के अनुरूप वह उसे भोगती हैं तथा नवीन कर्म के परिणाम को भोगने के लिए वह फिर जन्म लेती है।

कर्म और पुनर्जन्म एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कर्मों के फल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है तथा पुनर्जन्म के कारण फिर नए कर्म संग्रहीत होते हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म के दो उद्देश्य हैं- पहला, यह कि मनुष्य अपने जन्मों के कर्मों के फल का भोग करता है जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है। दूसरा, यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नए जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है जिससे बार-बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढ़ती जाती है तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है।

एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। मन भौतिक जगत की घटनाओं से शरीर में विद्यमान इन्द्रियों के माध्यम से प्रभावित होता है। बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है, जो निर्णय लेती है कि अमुक कार्य, इच्छा, प्रभाव इत्यादि हितकर हैं या नहीं।

मन से प्रभावित बुद्धि के निर्णय लेने के उपरांत शरीर द्वारा प्रतिपादित कार्य संस्कार बन जाता है। यदि कर्म ध्यानपूर्वक किया जाए तो यह संचित कर्म बन जाता है तथा उसकी पुनरावृत्ति होती है और यह बार-बार का संचित कर्म ही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है।

जातक के लग्न में उच्च या स्वराशि का बुध या चन्द्र स्थिति हो तो यह उसके पूर्व जन्म में सद्गुणी व्यापारी( वैश्य) होने का सूचक है। किसी जातक के जन्म लग्न में मंगल उच्च राशि या स्वराशि में स्थित हो तो इसका अर्थ है कि वह पूर्व जन्म में क्षत्रिय योद्धा था।

जीवितावस्था में मनुष्य अपने संस्कारों, विचारों, भावों और कर्मों द्वारा सूक्ष्म शक्ति अर्जित करता है। वह शक्ति भी इस शक्ति के साथ मिल जाती है, क्योंकि वह भी कभी नष्ट नहीं हो सकती, क्योंकि शक्ति या एनर्जी स्थितिज या गतिज रूप में सदैव विद्यमान रहती है।

अतः मृत्यु के बाद यह शक्ति ही मृतक के सूक्ष्म संस्कारों, भावों, विचारों और कर्मों की शक्ति से युक्त होकर अपने अनुकूल वातावरण में किसी गर्भाशय में पुनः जन्म लेती है। अतः पुनर्जन्म आत्मा का नहीं, इस शक्ति का होता है। यही नया शरीर धारण करती है।

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