शुभ कार्यों में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मुहूर्त गणना के लिए पंचांग का होना आवश्यक है। तिथि,वार,नक्षत्र,योग व करण इन पांच अंगों को मिलाकर ही 'पंचांग' बनता है। करण पंचांग का पांचवां अंग है। तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। तिथि के पहले आधे भाग को प्रथम करण तथा दूसरे आधे भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार 1 तिथि में दो करण होते हैं। करण कुल 11 प्रकार के होते हैं इनमें से 7 चर व 4 स्थिर होते हैं।
चर करण- 1.बव 2.बालव 3.कौलव 4.तैतिल 5.गर 6.वणिज 7. विष्टि (भद्रा)।
स्थिर करण- 8.शकुनि 9.चतुष्पद 10.नाग 11.किंस्तुघ्न।
इसमें विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। समस्त करणों में भद्रा का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष अष्टमी (8) व पूर्णिमा (15) तिथि के पूर्वाद्ध में, चतुर्थी (4) व एकदाशी (11) तिथि के उत्तरार्द्ध में, एवं कृष्ण पक्ष की तृतीया (3) व दशमी (10 ) तिथि के उत्तरार्द्ध में, सप्तमी (7) व चतुर्दशी (14) तिथि के पूर्वाद्ध में 'भद्रा' रहती है अर्थात् विष्टि करण रहता है।
पूर्वार्द्ध की भद्रा दिन में व उत्तरार्द्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य है। यहां विशेष बात यह है कि भद्रा का मुख भाग ही त्याज्य है जबकि पुच्छ भाग सब कार्यों में शुभफलप्रद है। भद्रा के मुख भाग की 5 घटियां अर्थात 2 घंटे त्याज्य है। इसमें किसी भी प्रकार का शुभकार्य करना वर्जित है। पुच्छ भाग की 3 घटियां अर्थात 1 घंटा 12 मिनट शुभ हैं। सोमवार व शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरुवार की भद्रा को पुण्यवती तथा रविवार, बुधवार, मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। इसमें शनिवार की भद्रा विशेष अशुभ होती है।
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया