Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

भारत के 5 प्रमुख 'जंतर-मंतर'

Advertiesment
हमें फॉलो करें indian Observatory
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
जंतर-मंतर, यंत्र-मंत्र का अपभ्रंश रूप है। इसे प्राचीन भारत में वेधशाला कहा जाता था और इसे अंग्रेजी में ऑब्जरवेटरी (observatory) कहते हैं। इस जगह से सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र और अन्य तारों की गति और स्थिति पर नजर रखी जाती है। प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों ने इन वेधशालाओं का निर्माण कुछ ऐसी महत्वपूर्ण जगहों पर किया था जिसे खगोलीय महत्व का स्थान माना जाता है। भारत के अनेक प्राचीन पुरातात्विक स्मारकों और मंदिरों का खगोलीय महत्व है।


आकाश में अवस्थित ग्रह-नक्षत्रों का भला-बुरा प्रभाव धरती के वातावरण, प्राणियों, वनस्पतियों तथा ऋतु परिवर्तनों पर पड़ता देखा गया तो प्राचीनकाल के मनीषियों ने इस संबंध में अधिक खोज करने का निश्चय किया। इसके लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक समझा गया कि आकाश में घूमते ग्रहों की स्थिति को समझा जाए कि वे कब कहां किस स्थिति में होते हैं? यह कार्य आरंभिक दिनों में लंबी नलिकाओं के सहारे होता था। जो निष्कर्ष निकलते थे, उसके आधार पर ग्रह गणित की विधाएं विनिर्मित की गईं। लंबे समय तक इस गणितीय आधार पर ही ज्योतिष की गाड़ी को चलाया जाता रहा।

तारों, नक्षत्रों और ब्रह्मांड को जानने के लिए भारत में वेधशालाओं के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ। तब भारत के विद्वान समूची धरती को अपना ही घर तथा कार्यक्षेत्र मानते थे इसलिए वे मात्र भारत में ही बैठे रहने की अपेक्षा जहां आवश्यकता अनुभव करते थे, वहां वेधशाला का निर्माण करते थे। भारतीय विद्वानों ने ज्योतिष के लिए उपयुक्त भौगोलिक स्थिति यूनान की समझी और वेधशालाओं का अभिनव सिलसिला उसी भूमि से चला।

बाद में वेधशालाओं का निर्माण हुआ। वेधशाला में बने शंकु, धूप घड़ी, रेत घड़ी, घटी यंत्र आदि यंत्रों से जहां समय निर्धारण किया जाता था वहीं इससे सूर्य और चंद्र की गति पर नजर भी रखी जाती थी। वर्षों के प्रयोग और प्रयासों के बाद ही भारतीय ज्योतिषियों ने पंचांग का निर्माण किया और दूरस्थ स्थित तारों की गणना की। आकाश को मुख्यत: 27 नक्षत्रों में बांटा और प्रत्येक नक्षत्र समूह को हमारी आकाशगंगा का मील का पत्थर माना। इस तरह उन्होंने संपूर्ण ब्रह्मांड की गति और स्थिति का पता ही नहीं लगाया बल्कि यह भी बताया कि किस ग्रह या पिंड की उम्र क्या है और वह कब तक जिंदा रहेगा?

भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांत शिरोमणि' और ‘करण कौतूहल’ ग्रंथों में खगोल वेध के निमित्त अनेक विधान रखे हैं। वराहमिहिर की 'पंच सिद्धांतिका' में इन वेधशालाओं को बनाने के सूत्र संकेत हैं। इन सबसे पहले वेदों में ज्योतिषीय गणनाओं के बारे में मिलता है।

अरब और मिस्र में कई प्राचीन विशालकाय वेधशालाएं थीं, लेकिन इस्लाम के आगाज के बाद अरब जगत की भव्यता और उसकी समृद्धि को नष्ट कर दिया गया। लगभग 5,000 वर्ष पूर्व निर्मित मिस्र के पिरामिड भी तारों की स्थिति जानकर ही स्थापित किए गए थे। ये सभी पिरामिड ओरायन तारा समूह को इंगित करते हैं। दूसरी ओर मोसोपोटामिया (इराक और सीरिया) में कई प्राचीन इमारतें और मंदिर थे जिन्हें नष्ट कर दिया गया।

भारत में उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर, काशी का विश्‍वनाथ मंदिर, गुजरात का सोमनाथ मंदिर, दिल्ली का ध्रुव स्तंभ (कुतुबमीनार) आदि सभी प्राचीन वेधशालाएं ही थीं, लेकिन मुगल काल में मुगलों के अधीनस्थ क्षेत्रों में ज्यादातर वेधशालाएं नष्ट कर दी गईं।

कोणार्क (उड़ीसा) का सूर्य मंदिर वस्तुतः एक सूर्य वेधशाला है। सूर्य को खुली आंखों से देखना कठिन है इसलिए इसकी अंश गणना अति कठिन समझी जाती है। इसको हल करने के लिए खगोलवेत्ताओं की एक मंडली ने राज-सहयोग से कोणार्क का सूर्य मंदिर बनाया और उसमें सूर्य का वेध संधान किया।

बाद में जयपुर के तत्कालीन शासक जयसिंह ने इस विषय में विशेष रुचि ली। उन्होंने ज्योतिष और खगोल के कई ग्रंथ पढ़े और राज ज्योतिषी पं. जगन्नाथ के साथ मिलकर उन्होंने ऐसी वेधशालाओं का निर्माण कराया जिन्हें आज 'जंतर-मंतर' कहा जाता है। आओ जानते हैं राजा जयसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित 5 प्रमुख जंतर-मंतरों के बारे में...

अगले पन्ने पर पहला जंतर-मंतर...

दिल्ली का जंतर-मंतर : दिल्ली के तत्कालीन शासक मुहम्मदशाह से आज्ञा पत्र प्राप्त करके प्रथम वेधशाला दिल्ली में बनाई गई। इसका निर्माण सवाई जयसिंह द्वि‍तीय ने सन् 1724 में करवाया था। यह इमारत मध्यकालीन भारत की वैज्ञानिक प्रगति की मिसाल है।

तकनीक की मिसाल - जंतर-मंतर

दिल्ली के कनॉट प्लेस में स्थित स्थापत्य कला का अद्वितीय नमूना 'जंतर-मंतर' दिल्ली के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। यह जंतर-मंतर वास्तुकला का अद्वितीय उदाहरण है। जंतर-मंतर में लगे 13 खगोलीय यंत्र राजा सवाई जयसिंह ने स्वयं डिजाइन किए थे। जंतर-मंतर में लगे तमाम यंत्रों की मदद से ग्रहों की चाल का अध्ययन किया जाता था।

अगले पन्ने पर दूसरी वेधशाला...

उज्जैन का जंतर-मंतर : दिल्ली में बनाए गए जंतर-मंतर के बाद राजा जयसिंह ने सन् 1733 ई. में मध्यप्रदेश के उज्जैन में वेधशाला का निर्माण किया। कर्क रेखा उज्जैन से होकर ही गुजरती है। महाकाल की गणना का भी उससे संबंध है। प्राचीनकाल में दुनिया का समय निर्धारण उज्जैन से ही होता था।

उज्जैन शहर में दक्षिण की ओर शिप्रा के दाहिनी तरफ जयसिंहपुरा नामक स्थान में बना यह प्रेक्षागृह 'जंतर-महल' के नाम से जाना जाता है। यहां 5 यंत्र लगाए गए हैं- सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र एवं शंकु यंत्र। इन यंत्रों की सन् 1925 में महाराजा माधवराव सिंधिया ने मरम्मत करवाई थी।

अगले पन्ने पर तीसरी वेधशाला...

वाराणसी की वेधशाला : इसके पश्चात राजा जयसिंह ने मान मंदिर में वाराणसी की छोटी वेधशाला बनवाई जिसमें मात्र 6 प्रधान यंत्र बनाए गए। वाराणसी में दशाश्वमेध घाट के ठीक बगल में स्थित है मान मंदिर महल। यह महल वास्तव में एक वेधशाला है।

मान मंदिर के नाम से विख्यात इस महल का निर्माण राजस्थान के आमेर के राजा मानसिंह द्वारा सन् 1600 ईस्वी के आसपास कराया गया। इसके बाद जयपुर शहर के संस्थापक राजा सवाई जयसिंह द्वितीय (1699-1743) ने इस महल की छत पर वेधशाला का निर्माण कराया।

वाराणसी की वेधशाला के 6 यंत्र-
1. सम्राट यंत्र : इस यंत्र द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की क्रांति विषुवांस, समय आदि का ज्ञान होता है।
2. लघु सम्राट यंत्र : इस यंत्र का निर्माण भी ग्रह-नक्षत्रों की क्रांति विषुवांस, समय आदि के ज्ञान के लिए किया गया था।
3. दक्षिणोत्तर भित्ति यंत्र : यस यंत्र से मध्याह्न के उन्नतांश मापे जाते हैं।
4. चक्र यंत्र : इस यंत्र से नक्षत्रादिकों की क्रांति स्पष्ट विषुवत काल आदि जाने जाते हैं।
5. दिगंश यंत्र : इस यंत्र से नक्षत्रादिकों दिगंश मालूम किए जाते हैं।
6. नाड़ी वलय दक्षिण और उत्तर गोल : इस यंत्र द्वारा सूर्य तथा अन्य ग्रह उत्तर या दक्षिण किस गोलार्ध में हैं, यह मालूम किया जाता था।

अगले पन्ने पर चौथी वेधशाला...

मथुरा की वेधशाला : 'यंत्र प्रकार' तथा 'सम्राट सिद्धांत' जैसे ग्रंथों की रचना द्वारा राजा जयसिंह द्वितीय ने उनके राज ज्योतिषी पं. जगन्नाथ के साथ मिलकर देशभर में 5 वेधशालाओं का निर्माण किया था, उनमें से एक मथुरा की वेधशाला भी थी। मथुरा की वेधशाला सन् 1850 के आसपास ही नष्ट हो चुकी थी। माना जाता है कि कंस के किले के पास यह वेधशाला थी।

अगले पन्ने पर पांचवीं वेधशाला...

जयपुर की वेधशाला : दिल्ली की वेधशाला के निर्माण के 10 वर्ष बाद राजा जयसिंह ने राजस्थान के जयपुर में वेधशाला बनाने का कार्य सन् 1718 से लेकर 1738 तक संपन्न कराया। इसे देश की सबसे बड़ी वेधशाला कहा जा सकता है। इसमें यंत्र अपेक्षाकृत अधिक लगे हैं और गणक सुविधा के लिए कुछ बड़े आकार के भी बनाए गए हैं। यूनेस्को ने 1 अगस्त 2010 को इस जंतर-मंतर विश्व धरोहर सूची में शामिल किया। ‍

विद्याधर भट्टाचार्य नामक ज्योतिष और शिल्पकार की मदद से ही दिल्ली और जयपुर की वेधशालाओं का शिल्प तय किया गया था।

275 साल से भी अधिक समय से प्राचीन खगोलीय यंत्रों और जटिल गणितीय संरचनाओं के माध्यम से ज्योतिषीय और खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी करने के लिए दुनियाभर में मशहूर इस अप्रतिम वेधशाला को देखने देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi