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वर-वधु का कुंडली मिलान कितना उचित, पढ़ें विश्लेषण

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पं. हेमन्त रिछारिया

पं. हेमंत रिछारिया 

सनातन संस्कृति की नींव षोडश संस्कारों में निहित है। इन षोडश संस्कारों में विवाह का महत्वपूर्ण स्थान है। बच्चों के युवा होते ही माता-पिता को उनके विवाह की चिंता सताने लगती है। विवाह का विचार मन में आते ही जो सबसे बड़ी चिंता माता-पिता के समक्ष होती है वह है अपने पुत्र या पुत्री के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश। इस तलाश के पूरी होते ही एक दूसरी चिंता सामने आ खड़ी होती है, वह है भावी दंपत्ति की कुंडलियों का मिलान जिसे ज्योतिष की भाषा में मेलापक कहा जाता है। प्राचीन समय में कुंडली-मिलान अत्यावश्यक माना जाता था।

वर्तमान सूचना और प्रौद्यागिकी के दौर में मेलापक केवल एक रस्म अदायगी बनकर रह गया है। ज्योतिष शास्त्र ने मेलापक में विलग-विलग आधार पर गुणों की कुल संख्या 36 निर्धारित की है जिसमें 18 या उससे अधिक गुणों का मिलान विवाह और दाम्पत्य सुख के लिए उत्तम माना जाता है। 
मेरे अनुसार केवल गुणों की संख्या के आधार पर दाम्पत्य सुख निश्चय कर लेना उचित नहीं है। अधिकतर देखने में आया है कि 18 की अपेक्षा कहीं अधिक गुणों का मिलान होने पर भी दंपत्तियों के मध्य दाम्पत्य सुख का अभाव पाया गया है। इसका मुख्य कारण है मेलापाक को मात्र गुण आधारित प्रक्रिया समझना जैसे कोई परीक्षा हो। जिसमें न्यूनतम अंक पाने पर विद्यार्थी उत्तीर्ण अथवा 1-2 अंक कम आने से अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। ज्योतिष इतना सरल व संक्षिप्त नहीं है।

गुण आधारित मेलापक की यह विधि पूर्णतया कारगर नहीं है। हमारे अनुसार विवाह में कुंडलियों का मिलान करते समय गुणों के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण बातों का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। भले ही गुण निर्धारित संख्या की अपेक्षा कम मिलें हो परन्तु दाम्पत्य सुख के अन्य कारकों से यदि दाम्पत्य सुख की सुनिश्चितता होती है तो विवाह करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। आइए जानते हैं कि मेलापक करते या करवाते समय गुणों के अतिरिक्त किन विशेष बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है।
 
मेलापक के समय ध्यान देने योग्य बातें
 
विवाह का उद्देश्य गृहस्थ आश्रम में पदार्पण के साथ ही वंश वृद्धि और उत्तम दाम्पत्य सुख प्राप्त करना होता है। प्रेम व सामंजस्य से परिपूर्ण परिवार ही इस संसार में स्वर्ग के समान होता है। इन उद्देश्यों की पूर्ति की संभावनाओं के ज्ञान के लिए मनुष्य के जन्मांग चक्र में कुछ महत्वपूर्ण कारक होते हैं। ये कारक हैं-सप्तम भाव एवं सप्तमेश, द्वादश भाव एवं द्वादशेश, द्वितीय भाव एवं द्वितीयेश, पंचम भाव एवं पंचमेश, अष्टम भाव एवं अष्टमेश के अतिरिक्त दाम्पत्य का नैसर्गिक कारक ग्रह शुक्र (पुरुषों के लिए) व गुरु (स्त्रियों के लिए)।
 
सप्तम भाव एवं सप्तमेश
दाम्पत्य सुख प्राप्ति के लिए सप्तम भाव का विशेष महत्व होता है। सप्तम भाव ही साझेदारी का भी होता है। विवाह में साझेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अतः सप्तम भाव पर कोई पाप ग्रह का प्रभाव नहीं होना चाहिए। सप्तम भाव के अधिपति का सप्तमेश कहा जाता है। सप्तम भाव की तरह ही सप्तमेश पर कोई पाप प्रभाव नहीं होना चाहिए और ना ही सप्तमेश किसी अशुभ भाव में स्थित होना चाहिए।
 
द्वादश भाव एवं द्वादशेश
सप्तम भाव के ही सदृश द्वादश भाव भी दाम्पत्य सुख के लिए अहम माना गया है। द्वादश भाव को शैय्या सुख का अर्थात्‌ यौन सुख प्राप्ति का भाव माना गया है। अतः द्वादश भाव एवं इसके अधिपति द्वादशेश पर किसी भी प्रकार के पाप ग्रहों का प्रभाव दाम्पत्य सुख की हानि कर सकता है।
 
द्वितीय भाव एवं द्वितीयेश
विवाह का अर्थ है एक नवीन परिवार की शुरूआत। द्वितीय भाव को धन एवं कुटुम्ब भाव कहते हैं। द्वितीय भाव से पारिवारिक सुख का पता चलता है। अतः द्वितीय भाव एवं द्वितीय भाव के स्वामी पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपत्ति को पारिवारिक सुख से वंचित करता है।
 
 पंचम भाव एवं पंचमेश
शास्त्रानुसार जब मनुष्य जन्म लेता है तब जन्म लेने के साथ ही वह ऋणी हो जाता है। इन्हीं जन्मजात ऋणों में से एक है पितृ ऋण। जिससे संतानोपत्ति के द्वारा मुक्त हुआ जाता है। पंचम भाव से संतान सुख का ज्ञान होता है।  पंचम भाव एवं इसके अधिपति पंचमेश पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपत्ति को संतान सुख से वंचित करता है।
 
अष्टम भाव एवं अष्टमेश
विवाहोपरान्त विधुर या वैधव्य भोग किसी आपदा के सदृश है। अतः भावी दम्पत्ति की आयु का भलीभांति परीक्षण आवश्यक है। अष्टम भाव एवं अष्टमेश से आयु का विचार किया जाता है। अष्टम भाव एवं अष्टमेश पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव दंपत्ति की आयु क्षीण करता है।
 
 नैसर्गिक कारक
इन कारकों के अतिरिक्त दाम्पत्य सुख से नैसर्गिक कारकों जो वर की कुण्डली में शुक्र एवं कन्या की कुण्डली में गुरु होता है, पर पाप प्रभाव नहीं होना चाहिए। यदि वर अथवा कन्या की कुण्डली में दाम्पत्य सुख के नैसर्गिक कारक शुक्र व गुरु पाप प्रभाव से पीड़ित हैं या अशुभ भावों स्थित है तो दाम्पत्य सुख की हानि कर सकते हैं।

विंशोत्तरी दशा भी है महत्वपूर्ण
उपरोक्त महत्वपूर्ण कारकों अतिरिक्त वर अथवा कन्या की महादशा एवं अंतर्दशाओं की भी कुण्डली मिलान में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जिसकी अक्सर ज्योतिषी उपेक्षा कर देते हैं। हमारे अनुसार वर अथवा कन्या दोनों ही पर पाप व अनिष्ट ग्रहों की महादशा/अंतर्दशा का एक ही समय में आना भी दाम्पत्य सुख के लिए हानिकारक है। अतः उपरोक्त कारकों के मिलान एवं परीक्षण के उपरान्त महादशा व अंतर्दशाओं का परीक्षण परिणाम में सटीकता लाता है।
 

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