पण्डितजन कहते हैं कि हम भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे हैं। भगवान की प्राण प्रतिष्ठा.....! कितनी आश्चर्य की बात है कि जो परमात्मा इस जगत के समस्त प्राणियों में प्राणों का संचार करता है हम उस परमात्मा की प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे हैं।
यदि शास्त्र गलत हाथों में पड़ जाए तो शस्त्र से भी अधिक खतरनाक साबित हो जाता है। यदि कोई नर, नारायण के प्राणों की प्रतिष्ठा करने में सक्षम हो जाए तो वह नारायण से बड़ा हो जाएगा क्योंकि जन्म देने वाला सदा ही जन्म लेने वाले के बड़ा होता है इसलिए अपनी नर लीलाओं में स्वयं नारायण भी अपने जन्म देने वाले माता-पिता के आगे झके हैं। ये बड़ी गहरी बात है।
शास्त्रों में किसी पाषाण प्रतिमा अथवा पार्थिव मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा बहुत सांकेतिक है। सनातन धर्म में पाषाण की प्रतिमा बनाने के पीछे जो गूढ उद्देश्य है वह यह है कि परमात्मा के प्रेम, भक्ति व श्रद्धा में हमारी दृष्टि इतनी सूक्ष्म व संवेदनशील हो जाए कि हमें संसार की सबसे जड़ वस्तु पाषाण में भी परमात्मा के दर्शन होने लगें। किन्तु वर्तमान समय में हमने इस तथ्य का विस्मरण कर इसे केवल रूढ़ परम्परा बनाकर अपनाए रखा है।
आज हम चैतन्य जीवों में भी परमात्मा नहीं देख पा रहे हैं और पाषाण प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा का दिखावा कर रहे हैं, जो अनुचित है। प्राण-प्रतिष्ठा से आशय केवल इतना ही है कि एक ना एक दिन हमें अपनी इस पंचमहाभूतों से बनी देह प्रतिमा में उस परमात्मा को जो इसमें पहले से ही उपस्थित है, साक्षात्कार कर प्रतिष्ठित करना है। जब हम अपनी देह में उस परमात्म तत्त्व को अनुभूत कर पाएंगे तभी हम संसार के समस्त जड़-चेतन में उस ईश्वर का दर्शन कर पाएंगे। पाषाण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा का उपक्रम करना इसी बात का स्मरण मात्र है।
ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया