भारत की महानतम भूमि ने ऐसे दिव्य रत्न प्रदान किए हैं जिनकी मनीषा और विलक्षणता ने समस्त संसार को चौंका दिया है। आज भी उनकी बुद्धिमत्ता और ज्ञान रहस्य का विषय हैं। ज्योतिष भारत की समृद्ध और यशस्वी परंपरा है। आइए जानें भारत के 10 ऐसे ज्योतिर्विद् को जिन्हें ब्रह्मांड से लेकर पाताल तक के रहस्य की जानकारी थी।
(1) आर्यभट (प्रथम)- आर्यभट ही ऐसे प्रथम गणितज्ञ ज्योतिर्विद् हैं, जिनका ग्रंथ एवं विवरण प्राप्त होता है। वस्तुत: ज्योतिष का क्रमबद्ध इतिहास इनके समय से ही मिलता है। इनका गणित ज्योतिष से संबद्ध आर्यभटीय-तंत्र प्राप्त है, यह उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथों में सबसे प्राचीन है। इसमें दशगीतिका, गणित, कालक्रिया तथा गोल नाम वाले चार पाद हैं। इसमें सूर्य और तारों के स्थिर होने तथा पृथ्वी के घूमने के कारण दिन और रात होने का वर्णन है। इनके निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, कुछ लोग दक्षिण देश के 'कुसुमपुर' को इनका स्थान बताते हैं तथा कुछ लोग 'अश्मकपुर बताते हैं। इनका समय 397 शकाब्द बताया गया है। गणित ज्योतिष के विषय में आर्यभट के सिद्धांत अत्यंत मान्य हैं। इन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों की व्याख्या की है और वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल आदि गणितीय विधियों का महत्वपूर्ण विवेचन किया है।
(2) वराहमिहिर- भगवान सूर्य के कृपापात्र वराहमिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरूपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (गणित)- स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।
इन्हें शकाब्द 427 में विद्यमान बताया जाता है। ये उज्जैन के रहने वाले थे इसीलिए ये अवन्तिकाचार्य भी कहलाते हैं। इनके पिता आदित्यदास थे, उनसे इन्होंने संपूर्ण ज्योतिर्ज्ञान प्राप्त किया। जैसे ग्रहों में सूर्य की स्थिति है, वैसे ही दैवज्ञों में वराहमिहिर का स्थान है। वे सूर्यस्वरूप हैं। उनकी रचना-शैली संक्षिप्तता, सरलता, स्पष्टता, गूढ़ार्थवक्तृता और पांडित्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। इन्होंने 13 ग्रंथों की रचनाएं की हैं। इनका बृहज्जातक ग्रंथ फलित शास्त्र का सर्वाधिक प्रौढ़ तथा प्रामाणिक ग्रंथ है। इस पर भट्टोत्पली आदि अनेक महत्वपूर्ण टीकाएं हैं। आचार्य वराहमिहिर ने इस विज्ञान को अपनी प्रतिभा द्वारा बहुत विलक्षणता प्रदान की। ये भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मार्तण्ड कहे जाते हैं।
यद्यपि आचार्य के समय तक (नारद संहिता आदि में) ज्योतिष शास्त्र संहिता, होरा तथा सिद्धांत- इन तीन भागों में विभक्त हो चुका था तथापि आचार्य ने उन्हें और भी व्यवस्थित कर उसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध इनके पंचसिद्धांतिका नामक ग्रंथ की यह विशेषता है कि इसमें इन्होंने अपना कोई सिद्धांत न देकर अपने समय तक के पूर्ववर्ती पांच आचार्यों (पितामह, वशिष्ठ, रोमश, पौलिश तथा सूर्य)- के सिद्धांतों (अभिमतों)- का संकलन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी बृहत्संहिता-स्कंध का सबसे प्रौढ़ तथा मान्य ग्रंथ है। इसमें 106 अध्याय हैं। इस पर भट्टोत्पल की टीका बड़ी प्रसिद्ध है। फलित ज्योतिष का बृहज्जातक को दैवज्ञों का कंठहार ही है। इसमें 28 अध्याय हैं। इसमें स्वल्प में ही फलित ज्योतिष के सभी पक्षों का प्रामाणिक वर्णन है। इसमें पूर्व प्रचलित पाराशरीय विंशोतरी दशा को न मानकर नवीन दशा-निरूपण दिया हुआ है। इस ग्रंथ का नष्टजातकाध्याय बड़े ही महत्व का है।
(3) पृथुयश- पृथुयश आचार्य वराहमिहिर के पुत्र हैं। इनके द्वारा विरचित 'षट्पंचाशिका' फलित ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें सात अध्याय हैं।
(4) कल्याण वर्मा- इनका समय शकाब्द 500 के लगभग है। इनकी लिखी सारावली होराशास्त्र का प्रमुख ग्रंथ है। इन्हें गुर्जरदेश (गुजरात)- का बताया गया है। सारावली फलादेश अत्यंत प्रामाणिक माना जाता है। इसमें 42 अध्याय हैं। कहा जाता है कि इन्हें सरस्वती का वरदान प्राप्त था। भट्टोत्पल ने बृहज्जातक की टीका में सारावली के कई श्लोक उद्धृत किए हैं।
(5) लल्लाचार्य- लल्लाचार्य ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध 'शिष्यधीवृद्धितंत्र' ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके समय के विषय में मतभेद हैं, किंतु कुछ आचार्यों का कहना है कि ये 500 शकाब्द के आसपास विद्यमान थे। इन्हें दाक्षिणात्य बताया गया है। इन्होंने रत्नकोष (संहिता ज्योतिष) तथा जातकसार (होरास्कंध) नामक ग्रंथों का भी प्रणयन किया। लल्लाचार्य गणित, जातक और संहिता इन तीनों स्कंधों में पूर्ण प्रवीण थे। शिष्यधीवृद्धितंत्र में प्रधान रूप से गणिताध्याय और गोलाध्याय- ये दो प्रकरण हैं। गणिताध्याय में अनेक अधिकार (प्रकरण) हैं। भास्कराचार्यजी इनके प्रौढ़ ज्ञान से विशेष प्रभावित थे।
6) भास्कराचार्य (प्रथम)- इनका समय 530 शकाब्ध के आसपास माना गया है। इनके महाभास्करीय तथा लघुभास्करीय- ये दो ग्रंथ हैं। आर्यभटीय का भी इन्होंने व्याख्यान किया था। ये लीलावती के लेखक प्रसिद्ध भास्कराचार्य से भिन्न हैं।
(7) ब्रह्मगुप्त- महान गणितज्ञ आचार्य ब्रह्मगुप्त ब्राह्मसिद्धांत का विस्तार करने वाले हैं। इनका समय 520 सकाब्द है। प्रसिद्ध भास्कराचार्य ने इन्हें 'गणकचक्र-चूड़ामणि' कहा है। इन्होंने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत तथा खंडखाद्य नामक करण ग्रंथ का निर्माण किया। ये विष्णु के पुत्र हैं। ये गुर्जर प्रांत के भिन्नमाल ग्राम के निवासी थे।
इन्होंने गणित के क्षेत्र में महान सिद्धांतों की रचना की और नवीन मत भी स्थापित किए। यह कहा जाता है कि तीन ही सिद्धांत (गणित की पद्धितियां) हैं- (1) आर्य, (2) सौर तथा (3) ब्राह्म और इनके क्रमश: तीन ही आचार्य भी हुए हैं- (1) आर्यभट, (2) वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त। ये वेद विद्या में अत्यंत निपुण और असाधारण विद्वान थे। इन्होंने बीजगणित के कई नियमों का आविष्कार किया इसीलिए ये गणित के प्रवर्तक कहे गए हैं। अलबरूनी ने इनके गणित ज्ञान की बहुत प्रशंसा की है। ये आर्यभट से उपकृत भी थे, किंतु खंड खाद्य में उनके अनेक मतों का प्रबल विरोध भी इन्होंने किया।
(8) श्रीधराचार्य- बीजगणित के ज्योतिर्विदों में श्रीधराचार्य का स्थान अन्यतम है। इनके त्रिशतिका (पाटी गणित), बीजगणित, जातक पद्धति तथा रत्नमाला आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। परवर्ती भास्कराचार्य आदि इनके सिद्धांतों से बहुत उपकृत हैं।
(9) वित्तेश्वर (वटेश्वर)- 'करणसार' नामक इनका ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ आर्यभट के सिद्धांतों का अनुगमन करता है।
(10) मुंजाल- मध्याधिकार, स्पष्टाधिकार आदि आठ प्रकरणों में विभक्त 'लघुमानस' करण ग्रंथ के रचयिता मुंजाल का ज्योतिष-जगत् में महान आदर है। ये भारद्वाजगोत्रीय थे। अयनांशनिरूपण में इनका विशिष्ट योगदान रहा है। प्रतिपाद्य विषय गणित होने पर भी इस ग्रंथ की शैली बड़ी रोचक तथा सुगम है।