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रत्न : प्रकृति के अनमोल उपहार

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- पंडिबृजेकुमाराय

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प्रकृति का गुण विकार उत्पन्न करना अवश्य है 'प्रकृतिर्विकृतिर्गुणः', किन्तु विकार का निदान या निराकरण करना भी इसी का कार्य है। क्योंकि विकार की पृथक सत्ता जब तक सत्यापित नहीं होगी, पुरुष के निर्विकार होने की कल्पना कैसे की जा सकती है? प्रलयान्त में इन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता का होना अनिवार्य है। क्योंकि तभी पुनर्निर्माण के समय पुरुष एवं प्रकृति के संयोग की अवस्था बनेगी। इस गूढ़ विवेचन से विषयान्तर हो जाएगा, अतः हम मूल विषय पर आते हैं।

हमारा विषय है विकार और निवारण। जगत चक्र के नियमन हेतु प्रकृति को अनेक रूप धारण करने पड़ते हैं और इस प्रकार विकार, विघ्न, बाधा, अरिष्ट, कष्ट आदि भी दैहिक, दैविक तथा भौतिक रूप से अनेक हो सकते हैं। यंत्र, मंत्र एवं तंत्र भेद से उनके निवारण भी विविध हो सकते हैं। हम यहाँ रत्नों की बात करेंगे।

प्रकृति ने अपने विकार निवारण हेतु हमें बहुत ही अनमोल उपहार के रूप में विविध रत्न प्रदान किए हैं, जो हमें भूमि (रत्नगर्भा), समुद्र (रत्नाकर) आदि विविध स्त्रोतों से प्राप्त होते हैं। कौटिल्य ने भी यही बात बताई है- 'खनिः स्त्रोतः प्रकीर्णकं च योनयः'। ये रत्न हमारे हर विकार को दूर करने में सक्षम हैं। चाहे विकार भौतिक हो या आध्यात्मिक। इसी बात को ध्यान में रखते हुए महामति आचार्य वराह मिहिर ने बृहत्संहिता के 79वें अध्याय में लिखा है- 'रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणामनिष्टमषुभेन। यस्मादतः परीक्ष्यं दैवं रत्नाश्रितं तज्ज्ञैः।'

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अर्थात्‌ शुभ, स्वच्छ व उत्तम श्रेणी का रत्न धारण करने से राजाओं का भाग्य शुभ तथा अनिष्ट कारक रत्न पहनने से अशुभ भाग्य होता है। अतः रत्नों की गुणवत्ता पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। दैवज्ञ को खूब जाँच-परखकर ही रत्न देना चाहिए, क्योंकि रत्न में भाग्य निहित होता है।

किसी रत्न विशेष की व्याख्या करने से पूर्व मूल रत्नों को नामांकित करना आवश्यक है। ये रत्न इस प्रकार हैं- हीरा (वज्र क्पंउवदक), नीलम (इन्द्रनील-चीपतम), पन्ना (मरकत), लहसुनिया या कटैला, विमलक, राजमणि, (सम्भवतः फनंतज्र), स्फटिक, चन्द्रकान्तमणि, सौगन्धिक, गोमेद, शंखमणि, महानील, ब्रह्ममणि, ज्योतिरस, सस्यक, मोती व प्रवाल (मूँगा)। ये रत्न भाग्य वृद्धि के लिए धारण करने योग्य हैं।

ये समस्त पृथ्वी से मूल रूप में प्राप्त होने वाले मात्र 21 ही हैं किन्तु जिस प्रकार से 18 पुराणों के अलावा इनके 18 उपपुराण भी हैं ठीक उसी प्रकार इन 21 मूल रत्नों के अलावा इनके 21 उपरत्न भी हैं। इन रत्नों की संख्या 21 तक ही सीमित होने का कारण है। जिस प्रकार दैहिक, दैविक तथा भौतिक रूप से तीन तरह की व्याधियाँ तथा इन्हीं तीन प्रकार की उपलब्धियाँ होती हैं और इंगला, पिंगला और सुषुम्ना इन तीन नाड़ियों से इनका उपचार होता है।

इसी प्रकार एक-एक ग्रह से उत्पन्न तीनों प्रकार की व्याधियों एवं उपलब्धियों को आत्मसात्‌ या परे करने के लिए एक-एक ग्रह को तीन-तीन रत्न प्राप्त हैं। ध्यान रहे, ग्रह भी मूल रूप से मात्र तीन ही हैं।

सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि, राहु एवं केतु की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता न होने से इनकी गणना मूल ग्रहों में नहीं होती है। इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है। इस प्रकार एक-एक ग्रह के तीन-तीन रत्न के हिसाब से सात ग्रहों के लिए 21 मूल रत्न निश्चित हैं। अस्तु, ये मूल रत्न जिस रूप में पृथ्वी से प्राप्त होते हैं, उसके बाद इन्हें परिमार्जित करके शुद्ध करना पड़ता है तथा बाद में इन्हें तराशा जाता है।

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