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मंगल ग्रह की औषधियाँ

- आरके राय

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संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य के बाद दूसरा सबसे उग्र ग्रह मंगल ही है। यह धरती का बेटा है। इसीलिए इसका एक नाम भौम भी है। इसे कुज एवं वक्र के नाम से भी जाना जाता है। अन्य ग्रहों की तरह यह भी कुंडली में बारहों भावों में भ्रमण करता रहता है। स्थिति, योग एवं संबंध के अनुरूप जातक को फल देता रहता है।

इससे उत्पन्न दोषों की शान्ति हेतु समृद्ध प्रकृति के पास वनौषधि भरपूर मात्रा में उपलब्ध है। आयुर्वेद में इसका कई जगहों पर उल्लेख हुआ है। मंगल से संबंधित वनस्पतियों का उल्लेख प्रस्तुत है। आचार्य मणिबंध कृत 'पाकनिर्झरा' में बताया गया है कि-

'मौद्गल्योऽथकुटिलः प्रेतस्‌ त्रिजातेक्षु पिंकरादुधी। जानक्योऽविराभूता पुंकरस्रग्ध दक्षा कुजाः।'

इसका विशेष विवरण निम्न प्रकार है।
1. मौद्गल्य- इसका वास्तविक नाम उदाल है। किन्तु शास्त्रों में इसे मौद्गल्य के नाम से जाना जाता है। कारण यह है कि सर्वप्रथम मुद्गल ऋषि ने अपनी पालिता पुत्री विभावरी की शादी मात्र इसलिए कर सकने में असमर्थ थे कि विभावरी की जन्मकुंडली में प्रथम भाव में मंगल-कर्क राशि का एवं सातवें भाव में गुरु, सूर्य, मकर राशि का होकर बैठे थे।

मंगल पर पवित्र ग्रह गुरु की दृष्टि होने के बावजूद भी मांगलिक दोष की प्रचंडता के कारण उसकी शादी बाधित हो रही थी। फिर तपोबल से ऋषि ने इस मंगल की औषधि को ढूँढा। इसीलिए इसका नाम मौद्गल्य पड़ गया। मोटे तथा छोटे एवं गोल पत्तों वाला यह पौधा परजीवी होता है।

यह अक्सर बड़े पेड़ों के कोटरों, या कही अगर किसी पेड़ के किसी हिस्से में मिट्टी जमा हो गई तो उस मिट्टी में अपने आप उग जाता है। इसमें फल एवं फूल लगते हैं। किन्तु इसका बीज कहीं बोने से नहीं अंकुरित होता। यह तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि दक्षिणी प्रदेश में ज्यादा पाया जाता है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम भाव में मंगल दोष देने वाला हो गया हो तो इसका प्रयोग किया जाता है।

2. कुटिल- इसे स्थानीय भाषाओं में कटैला कहते हैं। इसके काँटे टेढ़े होते हैं। यदि कपड़े में फँस जाते हैं। तो बहुत ही कठिनाई से निकलते हैं। इसका तना पतला, हरा एवं पत्ते बहुत छोटे होते हैं। यह झाड़ी के आकार का होता है। मध्य भारत के प्रत्येक क्षेत्र में यह पाया जाता है। यह देहात में फोड़े-फुँसी की बहुत ही प्रचलित औषधि है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में दूसरे भाव में मंगल के कारण वाणी दोष, चर्मरोग या वित्तपात दोष हो तो इस वनस्पति का प्रयोग किया जाता है।

3. प्रेतस्‌- इसका स्थानीय नाम पितैला या तिलैया है। इसके पूरे तने पर सफेद रोम भरे पड़े होते हैं। यह पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके कोमल नवोदित पत्तों की बहुत लोग सब्जी भी बनाते हैं। इसका पत्ता चबाने पर खट्टे स्वाद का होता है। भाई बंधु या संबंधियों को पीड़ा हो या कुंडली में मंगल के तीसरे स्थान में बैठने के कारण यदि हमेशा भय बना रहता हो तो इसका प्रयोग किया जाता है।

4. त्रिजात- इसे राजस्थान में लोंठ, मध्यप्रदेश में मलीठा, तथा बंगाल, बिहार एवं उत्तरप्रदेश में तिनपतियाँ के नाम से जाना जाता है। इसकी चटनी बहुत स्वादिष्ट होती है। इसके पत्ते अरहर के पत्ते के समान होते हैं। यह चूहों का परम प्रिय भोजन है। इसका पेड़ जहाँ पर होता है। वहाँ पर अमूमन चूहे अपना बिल बना लेते हैं। कुंडली में चौथे भाव में मंगल के कारण दोषयुक्त हुई कुंडली के दोष निवारण हेतु इसका प्रयोग होता है। इसे वैधव्य दोष निवारण की बहुत सशक्त औषधि मानी जाती है।

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5. इक्षु- गन्ने या ईख को इक्षु कहा जाता है। यह किसान की सर्वविदित फसल है। शास्त्रों में मंगल के पाँचवें भाव के दोष निवारण हेतु मंगल की चतुर्भुजी मूर्ति बनाकर ईख के रस से स्नान कराने की विधि बताई गई है। यह वीर्य, ओज एवं रसवर्धक माना गया है। संतान बाधा एवं देवदोष निवारण में इसका प्रयोग किया जाता है।

6. पिंकर- औषधि विज्ञान में इसे सरसों की एक प्रजाति बताई गई है। किन्तु सरसों दो रंगों का होता है। पीले वाले सरसों का प्रयोग निषिद्ध माना गया है। यहाँ लाल रंग वाला सरसों ही गुणकारी है। छठे भाव के मंगल कृत दोष निवारण हेतु यह प्रयोग में लाया जाता है।

7. आदुधी- इसे दुधिया भी कहते हैं। इसका रूप रंग ब्राह्मी घास जैसा होता है। यह जमीन पर फैल कर आगे बढ़ता है। पत्ते बिल्कुल छोटे होते हैं। इसे कहीं से तोड़ने पर दूध बहने लगता है। सातवें भाव में मंगल के कारण उत्पन्न मांगलिक दोष एवं दाम्पत्य जीवन की कटुता के निवारण हेतु इसका प्रयोग किया जाता है।

8. जानकी- इसे देहाती भाषा में दाँतर कहा जाता है। लगातार कभी न अच्छे होने वाले रोग एवं उग्र वैधव्य दोष के अलावा पति अथवा पत्नी की लम्बी उम्र के लिए इसका दातुन करते हैं। लंका निवास के दौरान माता जानकी भगवान राम की लम्बी उम्र के लिए इसी का दातुन करती थी। यह सिंहल द्वीप की औषधि है। अन्यत्र यह उपलब्ध नहीं है।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार यह एक खूबसूरत पत्तों वाला टहनीदार किन्तु कसैले स्वाद वाला वृक्ष है। नासूर एवं भगन्दर आदि रोगों की रामबाण औषधि मानी गई है। आठवें भाव में मंगल के कारण उत्पन्न दोष के निवारण हेतु इस वनस्पति का प्रयोग किया जाता है।

9. अविराभ- सम्भवतः यह भटकटैया ही है। इसके पत्ते चिकने, गोल, तना छोटा, फल गोल कोमल छिलके वाले, स्वाद मीठा एवं टहनीदार झाड़ी के आकार का पौधा बताया गया है। इसके फल का रंग सिन्दूरी, लाल अथवा कत्थई होता है। बताया गया है कि इसका फल कवचावृत अर्थात किसी ढक्कनदार आवरण से ढका होता है। मंगल के कारण उत्पन्न भाग्य एवं धर्म दोष का निवारण इससे होता है।

10. पुंकर- इसका एक नाम प्लक्ष भी है। यह एक अतिप्रचलित वृक्ष है। इसके पत्ते तोड़ने पर दूध बहने लगता है। कहीं-कहीं देहातों में इसके नवोदित कोमल कलियों की सब्जी भी बनाई जाती है। बरगद के फल के समान इसके फल होते हैं। मैदानी इलाके में यह ज्यादा पाया जाता है।

इस वृक्ष के साथ पीपल एवं बरगद का पेड़ हो तो यह तीनों मिलकर हरिशंकरी के नाम से जाने जाते हैं। जिसकी पूजा की जाती है। पिता या नौकरी के संबंध में यदि मंगल के कारण कोई बाधा पहुँचती हो। अथवा दशम भाव संबंधी कोई मंगल कृत दोष हो तो इसका प्रयोग किया जाता है।

11. सरगंध- इसे सरपत भी कहते हैं। गाँव देहात में इसका प्रयोग छप्पर डालने के लिए किया जाता है। यह अक्सर नदी तालाब के किनारे पाया जाता है। इसके पत्तों की धार बहुत तेज होती है। इसके तने से बहुत दिनों पहले छोटे बच्चे कलम बनाकर लिखने का काम लेते थे। मंगल के कारण आमदनी में बाधा पहुँचती हो अथवा संतान संबंधी कष्ट हो या मंगल के कारण कुंडली का ग्यारहवाँ भाव दूषित हो तो इसका प्रयोग किया जाता है।

12. दक्ष- इसे दो नामों से जाना जाता है। महाराष्ट्र के सुदूर दक्षिणी प्रान्तों में इसे कहीं-कहीं आलू कहते हैं। गुजरात के खंभात इलाके में इसे कन्द के लिए प्रयुक्त करते हैं। जम्मू में भी इसे शकरकन्द के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। किन्तु केरल में इसे नारियल के अन्दर वाले हिस्से को कहते हैं।

आसाम एवं बंगाल में दाक्षी नाम का एक स्वतंत्र पौधा भी होता है। उड़ीसा में भी दाक्षी ही कहते हैं। दाक्षी एक जहरीला पौधा है। इसके पत्ते निचोड़कर लोग कीट पतंग मारने के काम में लाते हैं। ये दोनों ही वनस्पतियाँ बारहवें भाव के मंगल दोष को शान्त करती हैं।

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