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राहु-केतु और कालसर्प

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पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे

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प्रत्येक जातक की कुंडली में नौ ग्रहों की स्थिति अलग-अलग स्थान पर विराजमान होती है, राहु-केतु भी प्रत्येक कुंडली में विराजमान होते हैं। जातक की कुंडली में जब सारे ग्रह राहु और केतु के मध्य में आ जाए तब कालसर्प होता है। ऐसा क्यों होता है जानिए -

वेद के अध्ययन पर विचार करें तो राहु का अधिदेवता काल और प्रति अधिदेवता सर्प है जबकि केतु का अधिदेवता चित्रगुप्त एवं प्रति अधिदेवता ब्रह्माजी हैं। इस पर गौर से ध्यान दें या यह कहें कि राहु का दाहिना भाग काल एवं बायाँ भाग सर्प है। इसीलिए राहु-केतु की ओर कालसर्प योग बनाता है, केतु से राहु की ओर से नहीं। राहु और केतु की गति वाम मार्गी होने से यह स्पष्ट होता है कि जैसे सर्प अपने बाईं ओर ही मुड़ता है। वह दाईं ओर कभी नहीं मुड़ता। राहु एवं केतु सर्प ही हैं और सर्प के मुँह में जहर होता है जिन जातकों की कुंडली में कालसर्प होता है, उनके जीवन में असहनीय पीड़ा आती है।

कई कालसर्प योग वाले जातक असहनीय पीड़ा झेल रहे हैं। और कुछ जातक समृद्धि प्राप्त कर आनंद की जिंदगी जी रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि राहु केतु (सर्प) जिस पर प्रसन्न हैं, उसको संसार के सारे सुख सहज ही दिला देते हैं एवं इसी के विपरीत राहु, केतु क्रोधित हो जाए तो मृत्यु या मृत्यु के समान कष्ट देते हैं।

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सृष्टि का ‍विधान रहा है, जिसने भी जन्म लिया है, वह मृत्यु को प्राप्त होता है। मनुष्य भी उसी सृष्टि की रचना में है, अत: मृत्यु तो अवश्यंभावी है। उसे कोई नहीं टाल सकता, परंतु मृत्यु तुल्य कष्ट ज्यादा दुखकारी है, सुख की मृत्यु, कीर्ति की मृत्यु, समृद्धि की मृत्यु, (इनका जीवन में अभाव) मृत्यु के समान ही है ।जो मनुष्य जीते जी मृत्यु से अधिक पीड़ादायक है।

इसको दूसरी दृष्टि से देखें तो व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा, आर्थिक संपन्नता के मद में चूर हो जाता है जिसके कारण वह माता-पिता, अपने आश्रित भाई-बहन का सम्मान करके नहीं अपनी सेवा करवाकर खुश रहना चाहता है एवं उन्हें मानसिक रूप से दुखी करता है। उसी के प्रभाव के कारण उसे अगले जन्म में कालसर्प आता है।

शास्त्रानुसार जो जातक अपने माता-पिता एवं पितरों की सच्चे मन से सेवा करते हैं, उन्हें कालसर्प योग अनुकूल प्रभाव देकर, सुखी बनाता है। एवं जो कष्ट देते हैं उन्हें कालसर्प प्रतिकूल फल देकर दुखी एवं कष्टमय जीवन को जीने को बाध्य कर देता है। अत: कालसर्प की शांति अवश्य कराना चाहिए अथवा शिव आराधना करना चाहिए।

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