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विभाजन का बीज 1942 में ही पड गया था...

14 नवंबर-नेहरू जयंती पर विशेष

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वार्ता

NDND
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू भी भारत-पाक विभाजन के पक्ष में नहीं थे बल्कि वे उसे ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज और राजनीतिक मजबूरी मानते थे। वैसे देश के विभाजन का बीज 1942 में ही पड़ चुका था।

नेहरूजी हिंसा में यकीन नहीं रखते थे और उनके क्रांतिकारियों के साथ वैचारिक मतभेद थे परंतु वे भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद आदि का सम्मान भी करते थे। नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय की निदेशक और प्रसिद्ध इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने यहाँ नेहरू जयंती की पूर्व संध्या पर 'वार्ता' के साथ भेंटवार्ता में ये विचार व्यक्त किए।

उन्होंने बताया कि यह कहना गलत है कि पंडित नेहरू मन से विभाजन के पक्ष में थे और जिन्ना के साथ मिलकर उन्होंने भारत का बँटवारा कर लिया था। उन्होंने बताया कि नेहरू ने 15 जून 1947 को दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में एक महत्वपूर्ण भाषण दिया था जो उनके 'सेलेक्टेड वर्क्स' के चौथे खण्ड में 'विभाजन की अपरिहार्यता' शीर्षक से मौजूद है।

श्रीमती मुखर्जी ने बताया कि पंडित नेहरू ने उस भाषण में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि विभाजन की योजना में नया कुछ भी नहीं है। यह राजाजी उर्फ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के फार्मूले पर आधारित है, जो उन्होंने 23 अप्रैल 1942 को दो प्रस्तावों के रूप में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में पारित करवाया था।

ये प्रस्ताव मद्रास के विधायकों के थे जिनमें सिफारिश की गई थी कि कांग्रेस को विभाजन के मुस्लिम लीग के दावे को मान लेना चाहिए और इस संबंध में लीग के साथ बात की जानी चाहिए। राजाजी के फार्मूले के आधार पर ही महात्मा गाँधी ने इस संबंध में जिन्ना से बातचीत की थी।

उस समय हम लोग अहमदाबाद जेल में थे और इस मुद्दे पर हमने बातचीत भी की थी। हालाँकि हम लोग इस मुद्दे के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे। पर फार्मूले के आधारभूत तत्वों पर हमारे बीच कोई असहमति नहीं थी।

पंडित नेहरू ने उस भाषण में यह भी कहा था कि यह कहना गलत है कि मैंने और दो अन्य ने लाखों लोगों के भाग्य का फैसला 'विभाजन' किया। बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस ने भी बँटवारे के प्रस्ताव का समर्थन किया था। आज पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बारे में जो भी बात हो रही है, वह गलत समझ के कारण हो रही है।

श्रीमती मुखर्जी ने बताया कि पंडित नेहरू भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद के हिंसा के रास्ते से सहमत नहीं थे परंतु भगतसिंह की फाँसी से दु:खी थे। उन्होंने 29 मार्च 1931 को कराची में कांग्रेस के अधिवेशन में अपने भाषण में अपनी यह पीडा व्यक्त की थी और भगतसिंह की काफी तारीफ की थी। इससे पहले 5 जुलाई 1929 को नेहरूजी ने एक बयान जारी कर भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की जेल में भूख हडताल पर गहरी चिंता व्यक्त की थी।

  पंडित नेहरू ने उस भाषण में यह भी कहा था कि यह कहना गलत है कि मैंने और दो अन्य ने लाखों लोगों के भाग्य का फैसला 'विभाजन' किया। बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस ने भी बँटवारे के प्रस्ताव का समर्थन किया था।      
कराची अधिवेशन में नेहरूजी ने यह भी कहा- आखिर आज हर कोई भगतसिंह के बारे में क्यों सोच रहा है। यहाँ तक कि गाँव के बच्चे भी उन्हें जानते हैं। पहले भी कई लोगों ने बलिदान दिया था और आज भी दे रहे हैं पर भगतसिंह का नाम हरेक की जुबाँ पर क्यों हैं। आखिर कुछ तो इसका कारण होगा।

उन्होंने बताया कि पंडित नेहरू लाहौर षड्यंत्र मुकदमे के अभियुक्त भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, जतिन्द्रनाथ दास को देखने जेल गए थे जो भूख हडताल पर थे। नेहरूजी ने 9 अगस्त 1929 को लाहौर में इस सम्बन्ध में एक बयान भी जारी किया था। दस अगस्त को ट्रिब्यून अखबार ने उनका वह बयान छापा था।

पंडित नेहरू ने जब अपनी आत्मकथा लिखी तो उसमें उन्होंने लिखा- भगतसिंह का चेहरा बौद्धिक एवं आकर्षक था। वे काफी शांत स्वभाव के थे। उनके चेहरे पर आक्रोश का कोई भाव नहीं था। उन्होंने उनके साथ बड़ी नम्रता के साथ बातचीत की और विनम्रता से पेश आए। श्रीमती मुखर्जी ने कहा कि चंद्रशेखर आजाद भी एक बार आनंद भवन में पंडित नेहरू से मिलने गए थे और नेहरूजी ने उनसे बातचीत की थी। हालाँकि वे उन्हें नहीं पहचानते थे।

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