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बिन हाथों के लिखी कामयाबी की दास्तान

- पारुल अग्रवाल (दिल्ली)

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हमें फॉलो करें बिनोद कुमार सिंह
, सोमवार, 4 जुलाई 2011 (18:28 IST)
BBC
सिलाई मशीन पर तेजी से चलते पैर, बिन हाथों के सुई में धागा डालने का हुनर और मुंह में ब्रश थामकर रंगों के साथ ऐसी कलाकारी कि हाथों से बनी बेहतरीन कलाकृति भी फीकी पड़ जाए।

इस हफ्ते 'सिटीजन रिपोर्ट' की कड़ी में एक ऐसी गुमनाम शखिसयत की कहानी जो पेशे से दजी हैं, हुनर से एक बेहतरीन चित्रकार और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी। फर्क है तो सिर्फ इतना कि कामयाबी की इस इबारत को लिखने के लिए इनके पास हाथ नहीं हैं।

मेरा नाम बिनोद कुमार सिंह है और मैं कोलकाता में रहता हूं।

मैंने जब होश संभाला तो देखा कि मुश्किलें जिंदगी का दूसरा नाम हैं। जन्म से ही दोनों हाथ न होने के बावजूद मैंने अपने पैरों से लिखना सीखा, नौकरी न मिलने पर रोजी-रोटी के लिए सिलाई-कढ़ाई सीखी और मां-बाप का सपना पूरा करने के लिए तैरना सीखा।

मेरे पिताजी ने जब मुझे पहली बार देखा तब से आज तक वो हमेशा ये कहते हैं कि मैं दूसरे लड़कों से अलग हूं और जरूर उनका नाम रोशन करूंगा। आठवीं में पहुंचने के बाद खेल-कूद में मेरी रुचि बढ़ने लगी। शुरुआत हुई दौड़ से, जिसके बाद मैंने फुटबॉल खेलना शुरु किया और जल्द ही मैं स्कूल और कॉलेज स्तर का चैंपियन बन गया।

इसके बाद मैंने हाई-जंप में अपना लोहा मनवाया, लेकिन इस कड़वी सच्चाई से भी रूबरू हुआ कि विकलांग खिलाड़ी भले ही बेहतर खेलें, लेकिन वो उन्हीं प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले सकते हैं जो खासतौर पर विकलांगों के लिए हों।

आखिरकार मैंने स्विमिंग में अपना हुनर पहचाना और ठान लिया कि जैसे भी हो स्विमिंग चैंपियन बनूंगा। जब मैं पहली बार अपने कोच के पास प्रशिक्षण के लिए गया तो वे मुझे देखकर हैरान हो गए। उन्हें लगा कि बिन हाथों के मेरे लिए तैरना असंभव होगा। उन्होंने कहा कि मुझे तीन दिन में तैरकर दिखाना होगा और तभी वो मुझे प्रशिक्षण देंगे।

लेकिन मैं उनकी चुनौती पर खरा उतरा और तीन ही दिन में मैंने पानी में खड़ा होना, चलना और लेटना सीख लिया।

कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद आखिरकार आठ अप्रैल 2005 को मैं पहली बार पानी में उतरा। मैंने राज्य स्तर पर तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ट्रायल दिया और मुझे चुन लिया गया।

इसके बाद मुझे ऑल इंडिया स्तर पर खेलने का मौका मिला जिसमें मैंने चार स्वर्ण पदक जीते। जुलाई 2006 में मैंने पहली बार ब्रिटेन में हुई एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसके बाद 'वर्ल्ड गेम्स' में मैंने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता।

इसके बाद मैं लगातार प्रतियोगिताएं जीतता रहा और कई बार अंतरराष्ट्रीय आयोजकों ने अपने खर्च पर मुझे प्रतियोगिताओं के लिए आमंत्रित किया। लेकिन मुझे अपनी ज़िंदगी से सबसे बड़ी शिकायत है कि मैंने एक ऐसी व्यवस्था में जन्म लिया है जिसने जी तोड़ मेहनत के बावजूद कदम-कदम पर मुझे धोखा दिया।

2009 में हुए वर्ल्ड गेम्स के लिए मेरा चयन हुआ और मुझे अगस्त महीने में जाना था, लेकिन दो अगस्त को मुझसे कहा गया कि मुझे जाने के लिए पैसों का इंतजाम खुद करना होगा। मुझे और मुझ जैसे दूसरे विकलांग खिलाड़ियों को अगर यह बात समय रहते बताई गई होती तो शायद हम इस प्रतियोगिता में शामिल हो पाते।

भारत में चयन प्रक्रिया का आकलन किया जाए तो पता लगेगा कि सामान्य खिलाड़ियों की श्रेणी में जहां ऐसे खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं जो कुछ भी जीतकर नहीं ला पाते वहीं विकलांग खिलाड़ियों को काबिलियत होने के बावजूद देश के लिए खेलने का ही मौका नहीं मिल पाता।

बावजूद इसके कि वो साल दर साल ज्यादा से ज्यादा मेडल जीतकर ला रहे हैं। सरकार भले ही पैरा-ओलिम्पिक कमेटियों के जरिए विकलांग खिलाड़ियों की आर्थिक मदद का दावा करती हो, लेकिन आर्थिंक तंगी के चलते विकलांग खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले पाते।

2008 में मैं अपने पिता की ग्रेच्यूटी के पैसे से वर्ल्ड गेम्स में हिस्सा लेने जा सका। मेरे साथी ने इसके लिए अपनी मां के गहने बेचे। फिर भी मैंने हार नहीं मानी है और मैं जी-तोड़ कोशिश करूंगा कि पैरा-ओलिम्पिक में हिस्सा लूं और देश के लिए मेडल लाऊं।

हम सरकार को दिखाना चाहते हैं कि विकलांग देश पर बोझ नहीं और वो सभी कुछ कर सकते हैं, अगर उन्हें मौका दिया जाए।

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