'यहाँ आकर लगा अँगरेज खराब नहीं हैं'
- मुकेश शर्मा ( बीबीसी हिंदी संवाददाता)
अँगरेजों के शासनकाल में भारत की आजादी की माँग का समर्थन करने वाली श्रीला फ्लेदर को अंदाजा भी नहीं था कि आगे चलकर वे खुद इंग्लैंड की राजनीति का हिस्सा बनेंगी और ब्रिटेन की संसद में पहुँचने वाली अल्पसंख्यक समुदाय की पहली महिला होंगी।श्रीला फ्लेदर कंजरवेटिव पार्टी की ओर से 1990 में ब्रितानी संसद के ऊपरी सदन हाउस ऑफ लॉर्ड्स की सदस्य बनीं और इस तरह उन्हें बैरोनेस फ्लेदर कहा जाने लगा।आजादी से पहले अँगरेजों को भारत से बाहर करने के अभियान की समर्थक रहीं फ्लेदर के मुताबिक बाद में उनका अँगरेजों के प्रति नजरिया बदला, 'यहाँ आकर लगा कि सचमुच अँगरेज खराब नहीं हैं। जब हम आए तो लगा कि अँगरेज काफी सीधे, अच्छे और मदद करने वाले थे।'ढेर सारे स्कूल और अस्पताल बनवाने के लिए मशहूर सर गंगाराम के परिवार में लाहौर में जन्मीं श्रीला फ्लेदर ने 1950 के दशक में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से कानून की डिग्री ली और फिर बार-एट-लॉ करने वापस इंग्लैंड आईं।खुले तौर पर था नस्लभेद : उनका कहना है कि 1950 के दशक में भी इंग्लैंड में अकेले रहने में उन्हें कोई खास परेशानी नहीं हुई क्योंकि लोग तंग नहीं करते थे। वह मानती हैं कि उस समय इंग्लैंड में नस्लभेद था। उनके मुताबिक, 'नस्लभेद था भी तो बहुत खुले तौर पर था। लोगों को अगर बात नहीं करनी होती थी तो वो बात नहीं करते थे, लेकिन गालियाँ नहीं देते थे।'श्रीला फ्लेदर 1976 में काउंसिल की सदस्य बनीं और उसके बाद 1986 में वह विंडसर एंड मेडनहेड क्षेत्र की मेयर बनीं। ये वही इलाका है जिसमें इंग्लैंड की महारानी का शाही महल विंडसर पैलेस आता है। वह राजनीति में आने से पहले ही सामाजिक कार्य के क्षेत्र में आ चुकीं थीं और लोगों के बीच जाकर काम कर रहीं थीं।हमेशा साड़ी ही पहनी : आम तौर पर साड़ी पहनने वाली श्रीला फ्लेदर 1990 के दशक में जब हाउस ऑफ लॉर्ड्स की सदस्य बनीं तो वहाँ भी वह साड़ी ही पहनकर गईं।वे कहती हैं, 'मैं तो हमेशा से ही साड़ी पहनती हूँ और इसके अलावा तो कुछ पहना ही नहीं। बँटवारे और स्वतंत्रता के समय से ही साड़ी पहनने की आदत थी और यूनिवर्सिटी में भी हम साड़ी ही पहनते थे।'बैरोनेस फ्लेदर दोनों बेटों को नियमित अंतराल पर भारत ले जाती रही हैं जिससे वे भी भारत को जानते-समझते रहें। उनके मुताबिक, 'जब तक बच्चों को अपनी विरासत का पता नहीं हो तो उनमें आत्मविश्वास कैसे आएगा।'फरवरी में बैरोनेस फ्लेदर की एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है जो उन्होंने गरीबी हटाने के विषय में लिखी है। उनका कहना है कि महिलाओं के सहयोग से ये स्थिति बदली जा सकती है। अब बैरोनेस फ्लेदर आत्मकथा लिखना चाहती हैं।स्मृति स्थल : इसके अलावा बैरोनेस फ्लेदर की पहल पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लेने वाले दक्षिण एशियाई लोगों की याद में एक स्मृति स्थल भी बनवाया गया है।इस बारे में बैरोनेस फ्लेदर ने बताया, 'मुझे 1997 में ताज्जुब हुआ कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लेने वाले अपने लोगों की कोई यादगार ही नहीं है। इसके बाद मैंने एक ट्रस्ट बनाया, जो लोग इस बारे में जानते थे उनको साथ लिया और तब भी इसके लिए धन जुटाने में मुझे पाँच साल लग गए।'बैरोनेस फ्लेदर इस संबंध में ब्रिटेन में मौजूद धनी एशियाई समुदाय से काफी खिन्न हैं क्योंकि उनके मुताबिक धनी एशियाई लोगों ने लगभग तीस लाख पाउंड की इस परियोजना में कोई बड़ी आर्थिक मदद नहीं की।