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सिनेमा से दूर होते कश्मीरी

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हमें फॉलो करें कश्मीरी सिनेमा हाल
- अल्ताफ हुसैन (श्रीनगर से)

BBC
बीस वर्ष पूर्व भारत प्रशासित कश्मीर में जब पृथकतावादी आंदोलन शुरु हुआ तो चरमपथियों ने सबसे पहले शराब की दुकानें और सिनेमा घर बंद करा दिए। आठ-दस वर्ष तक ऐसा ही रहा।

इसके बाद जब सुरक्षा परस्थितियों में सुधार आता दिखाई दिया तो सरकार ने सिनेमा मालिकों को सिनेमा घरों की मरम्मत के लिए लाखों रुपए उपलब्ध कराए।

सरकार के इस कदम से श्रीनगर के आठ में से तीन सिनेमा घर फिर से खुल गए, लेकिन दूसरे ही दिन रीगल सिनेमा बंद हो गया, क्योंकि चरमपंथियों ने उस सिनेमा घर के बाहर हथगोला फेंका, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई।

ब्रॉडवे और नीलम अन्य दो सिनेमा इसके बावजूद वर्षों तक चलते रहे. लेकिन ब्रॉडवे जोकि सैन्य मुख्यालय के निटक सबसे सुरक्षित क्षेत्र में स्थित है अब बंद हो चुका है, लेकिन सुरक्षा कारणों से नहीं।

'दर्शक कम हो रहे हैं' :
सिनेमा मालिक का कहना है कि उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा था क्योंकि कम लोग फिल्म देखने आते थे। अब केवल नीलम सिनेमा बच गया है, लेकिन वहाँ भी कुछ ऐसा ही हाल है।

इस सिनेमा घर के मैनेजर मोहम्मद अय्यूब का कहना है, 'एक फिल्म के प्रिंट की कीमत एक लाख से लेकर डेढ़ लाख तक होती है, लेकिन हम ज्यादा से ज्यादा 50 हजार ही कमा पाते हैं।'

वो कहते हैं कि कभी-कभी नुकसान की भरपाई के लिए उन्हें अपने जेब से पैसे देने पड़ते हैं। समाजशास्त्री शहजादा सलीम का कहना है, 'कश्मीर में पिछले 20 वर्षों के दौरान सिनेमा जाने को एक अनैतिक कार्य माना गया है।'

वो कहते हैं कि रीगल सिनेमा हमले में मारे व्यक्ति के परिवार पर लोग ताने कसते थे और इस प्रकार से एक समाजिक नियंत्रण कायम हुआ और लोगों ने सिनेमा हॉल जाने के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि लोग फिल्म नहीं देखते हैं। देखते हैं, लेकिन घर में ही देखते हैं।

श्रीनगर दूरदर्शन के कार्यकारी प्रोड्यूसर बशीर बडगामी का कहना है, 'कश्मीर की युवा पीढ़ी को सिनेमा के बारे में पता ही नहीं है, जो मजा सिनेमा हॉल में फिल्म देखने का है वो छोटे स्क्रीन पर हो ही नहीं सकता है।

उनका मानना है कि पिछले 20 वर्षों से सिनेमा हॉल बंद रहने के कारण यहाँ कि युवा पीढ़ी से सिनेमाई सौंदर्य का तसव्वुर भी जाता रहा।

मल्टीप्लेक्स बने : ऐसे भी कश्मीरी युवा हैं जो दिल्ली या दूसरे शहरों में पढ़ते हैं या कारोबार करते हैं। वो वहाँ सिनेमा घरों में जाकर फिल्म देखते हैं।

ऐसे ही एक युवक जुनैद अहमद का कहना है, 'मैं जब दिल्ली में था तो हर हफ्ते फिल्म देखने जाता था, लेकिन कश्मीर में हालात कुछ और ही है।'

उनका कहना है कि कश्मीर में किसी भी वक्त सिनेमा हॉल पर हमला हो सकता है इसलिए अधिकतर लोग घर पर ही फिल्म देखते हैं। लेकिन शफाकत हबीब जो कई फिल्मों में कैमरामैन के तौर पर काम कर चुके हैं उनका मानना है कि सुरक्षा कारणों से सिनेमा हॉल बंद नहीं हुए हैं।

वो कहते हैं, 'मुझे नहीं लगता कि सुरक्षा कारणों से लोगों ने सिनेमा घर आना छोड़ दिया है। मैं समझता हूँ कि अगर मल्टीप्लेक्स बनाए जाएँ तो फिर से लोग आएँगे।' उनका कहना है कि इससे आम लोगों में फिल्म देखने का चलन बढ़ेगा।

लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में मीडिया के शिक्षक रहे शौकत शफी का मानना कुछ और ही है। वो कहते हैं कि अगर मल्टीप्लेक्स भी बनाए जाते हैं तो भी लोग फिल्म देखने नहीं जाएँगे।

वो मानते हैं कि अगर सैकड़ों लोग एक साथ सिनेमा में फिल्म देखने के लिए जाएँ तो यह इस बात का प्रतीक होगा कि यहाँ सब कुछ ठीक है जबकि वास्तव में यहाँ कुछ भी ठीक नहीं।

मल्टीप्लेक्स बनने की तत्काल कोई संभावना नजर नहीं आती। ले दे कर बस एक नीलम सिनेमा है। पिछले दिनों जब वहाँ गया तो फिल्म दिखाई ही नहीं गई, क्योंकि बहुत कम ही लोग फिल्म देखने आए थे।

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