प्रेरणा, बीबीसी संवाददाता
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो अपने महत्वाकांक्षी चंद्र मिशन के तहत 14 जुलाई को चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण करने जा रहा है। आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से इसे दोपहर 2.35 बजे प्रक्षेपित किया जाएगा। शुरुआती दो अभियान – चंद्रयान 1 और चंद्रयान- 2 के बाद यह तीसरी बार है, जब भारत इस दिशा में कोशिश कर रहा है।
इससे पहले ज़ाहिर है, साल 2019 में चंद्रयान-2 मिशन के दौरान लैंडर के सॉफ्ट लैंडिंग करने में सफलता नहीं मिल पाई थी। यही कारण है कि चंद्रयान-3 मिशन को भारत के लिए अहम माना जा रहा है और इससे काफ़ी उम्मीदें भी जुड़ी हैं।
लेकिन पिछली अनहोनी के बाद इसके कामयाब होने की कितनी संभावना है? चंद्रयान-3 में क्या-क्या बदलाव किए गए हैं? किन-किन चीज़ों का ध्यान रखा गया है? इस मिशन का लक्ष्य क्या है? ऐसे कई बुनियादी सवाल, जिनके जवाब जानने के लिए बीबीसी ने बात की डॉ आकाश सिन्हा से।
डॉ आकाश सिन्हा की अंतरिक्ष, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोट्स, ड्रोन्स में विशेषज्ञता है और वह शिव नादर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। नीचे दिए गए सभी सवाल-जवाब, उनसे हुई बातचीत पर आधारित है।
सवाल: इस बात की कितनी संभावना है कि चंद्रयान 3, चंद्रयान- 2 के रास्ते नहीं जाएगा? इस बार क्या-क्या बदलाव किए गए हैं?
जवाब: बीते 50 सालों में कई मिशन प्लान और एग्जिक्यूट किए गए हैं, लेकिन चंद्रयान-2 ने पहली बार चांद पर पानी की खोज की। भले ही उसका लैंडर बाहर नहीं आ पाया पर इस बार हम आश्वस्त हैं कि वो ज़रूर होगा। इस विश्वास के पीछे जो कारण हैं, वो ये कि पिछली बार लैंडर के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया गया था, उसमें अब बहुत बदलाव हुए हैं।
सवाल: चंद्रयान तीन का लैंडर चांद की उस सतह पर लैंड करेगा, जिसके बारे में अब तक कोई जानकारी मौजूद नहीं है। ऐसे में इस हिस्से में लैंड करना कितना मुश्किल है? यहाँ क्या-क्या और कितनी परेशानियां आ सकती हैं? अगर ये सफलतापूर्वक लैंड कर जाता है तो भारत के लिए कितनी बड़ी उपलब्धि होगी ?
जवाब: हमारे वैज्ञानिकों ने चांद के एक चुनौतिपूर्ण हिस्से को चुना है। इस हिस्से को लुनर साउथ पोल कहते हैं। इसकी ख़ास बात ये है कि इस पर धरती से सीधे नज़र रखना मुश्किल है। यहां पर पानी और दूसरे खनिज पदार्थों के होने की काफ़ी संभावना है।
सवाल: चंद्रयान-3 का उद्देश्य क्या है?
जवाब: इस मिशन में चंद्रयान का एक रोवर निकलेगा (एक छोटा सा रोबोट) जो कि चांद की सतह पर उतरेगा और लुनर साउथ पोल में इसकी पोजिशनिंग होगी। यहीं पर रोवर इस बात की खोज करेगा कि चांद के इस हिस्से में उसे क्या-क्या ख़निज,पानी आदि मिल सकता है।
इस खोज से ख़ास बात ये होगी कि अगर कभी भविष्य में हम चांद में कॉलोनियां बसाना चाहें, तो इसमें बहुत मदद मिलेगी।
सवाल: ऐसे मिशन के सबसे बड़े जोखिम क्या हो सकते हैं?
जवाब: पहला जोखिम ये है कि चांद पर जब आप कोई यान भेजते हैं, तो पूरी तरह से इसका नियंत्रण कंप्यूटर्स के पास होता है। एक इंसान होने के तौर पर, आप चार लाख किलोमीटर दूर बैठे उसे कंट्रोल नहीं कर सकते। वो पूरी तरह से आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस की मदद से काम करता है।
दूसरी चीज़ ये है कि चांद पर कोई जीपीएस नहीं है। जैसे हम धरती पर कोई गाड़ी चलाते हैं तो जीपीएस के माध्यम से कई जानकारियां हमें मिल जाती हैं। ड्राइवरलेस कारें जीपीएस तकनीक से ही काम करती हैं लेकिन चांद पर ये काम नहीं करती। वहां आपको पता नहीं चलेगा कि आप कहां पर हैं, किस हिस्से में हैं, कितनी दूर हैं? इन सभी चीज़ों का अनुमान उसे ऑनबोर्ड सेंसर से लगाना है, तो इससे दो-तीन नई मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। अच्छी बात ये है कि इस बार इन सभी चीज़ों का ध्यान रखा गया है।
सवाल: चंद्रयान 2 की लागत एक हॉलीवुड फिल्म के बजट से भी कम थी और चंद्रयान 3 मिशन की लागत उससे भी लगभग 30% कम है। भारतीय वैज्ञानिक ऐसा करने में कैसे कामयाब रहे?
जवाब: भारत में एक चीज़ हमें हमेशा से सिखाई गई है कि अपने संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल करें, संभव हो तो उनका पुन: उपयोग भी करें।
जैसे जब चंद्रयान 2 भेजा गया था तो उसके तीन हिस्से थे – ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर। ऑर्बिटर कामयाब रहा और वो अभी भी चांद की ऑर्बिट में घूम रहा है। तो इस बार जब हम चंद्रयान 3 भेज रहे हैं, तो ऑर्बिटर का प्रयोग नहीं कर रहे क्योंकि ऑर्बिटर वहां पहले से मौजूद है। ऐसे में हमारे ऑर्बिटर की पूरी लागत इस बार बच गई।
इसरो की सबसे अच्छी बात ये है कि ये ज़्यादातर काम इन-हाउस करते हैं। यानी काफ़ी तकनीक वो ख़ुद से डेवलप कर लेते हैं, जिससे कम लागत में हम बड़े मिशन को अमल में ला रहे हैं।