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वायु प्रदूषण की सबसे ज़्यादा मार किन लोगों पर पड़ रही है

हमें फॉलो करें वायु प्रदूषण की सबसे ज़्यादा मार किन लोगों पर पड़ रही है

BBC Hindi

, गुरुवार, 17 दिसंबर 2020 (09:12 IST)
डॉक्टर प्रकाश कसवाँ, बीबीसी हिंदी के लिए
आपने सुना होगा कि दिल्ली में आजकल ऑक्सीजन बार खुल गए हैं, जहां आप पैसा देकर शुद्ध वायु का सेवन कर सकते हैं। सुनने में यह थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन वायु प्रदूषण एक बहुत गंभीर समस्या बन गई है।
 
भारत में सालाना 16 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अकाल मौत के शिकार होते हैं। शहरों में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मोटर वाहन हैं लेकिन उसका सबसे ज्यादा नुक़सान रिक्शा चालकों, दिहाड़ी मज़दूरों, और फ़ुटपाथ पर अपनी रोज़ी रोटी जुटाने को मजबूर ग़रीब महिलाओं और पुरुषों को उठाना पड़ता है।

जहां अमीर लोग अपने घरों में एयर-कन्डिशनर और एयर-प्योरिफायर जैसे यंत्र लगा रहे हैं, शहरों में रहने वाले एक बड़े वर्ग को दिन रात वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है। यह पर्यावरणीय अन्याय का एक बड़ा उदाहरण है - करे कोई लेकिन भरे कोई और!
 
ज्यादातर मौतें ग्रामीण क्षेत्र में
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सर्दियों की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के खेतों में जलाए गए पराली के कारण दिल्ली में कोहरे की समस्या और ज्यादा गंभीर हो जाती है। हालांकि यह समस्या वर्ष में कुछ समय के लिए ही रहती है, कई बार इस बहाने दिल्ली में प्रदूषण का पूरा दोष किसानों पर डाल दिया जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि पराली जलाने की समस्या पंजाब और हरियाणा में खेती के पूर्ण मशीनीकरण के कारण ज्यादा बढ़ी है।
 
कम्बाइन्ड हार्वेस्टर मशीन जो फ़सल काटने के साथ-साथ धान निकालने का काम भी करती है, खेतों में नुकेले और बड़े डंठल पीछे छोड़ देती हैं जिनको जलाने के अलावा किसानों के पास और कोई किफ़ायती रास्ता नहीं है। इस समस्या को सुलझाने के प्रयास जारी हैं लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिन इलाक़ों में डंठल जलाने की समस्या इतनी गंभीर नहीं है उन ग्रामीण इलाक़ों में भी वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है।

वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि भारत में वायु प्रदूषण के होने वाली मौतों में से 75 प्रतिशत से ज्यादा मौतें ग्रामीण क्षेत्र में होती हैं। भारत के गांवों में घर के अंदर चूल्हे से होने वाला वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है, जिसका सबसे ज्यादा ख़मियाज़ा महिलाओं को भुगतान पड़ता है।

पूरी दुनिया में सिर्फ़ 10 प्रतिशत लोग ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों की अधिकतर मात्रा के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन उसका नुक़सान पूरी दुनिया, ख़ास तौर से ग़रीब देशों व ग़रीब लोगों को उठाना पड़ रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर व पूर्वी भारत, बांग्लादेश और नेपाल में बाढ़ की वजह से एक हज़ार से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और क़रीब चार करोड़ लोगों को अस्थाई विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा।

इसी प्रकार इस वर्ष के मॉनसून के दौरान भी इन्हीं इलाक़ों में भीषण बाढ़ के कारण एक हज़ार तीन सौ से ज्यादा लोगों की मौत हुई और क़रीब ढाई करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा।

जलवायु परिवर्तन का असर
भारत और दूसरे विकासशील देशों में लोगों की ग़रीबी, घनी आबादी के मुक़ाबले साधनों की कमी और जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की खेती, पशुपालन व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्याय के रूप में देखा जाता है।

ऐसा इसलिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा का क़रीब 70 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों को ऊर्जा आधारित विकास के लंबे इतिहास से संबंधित है।

वातावरण में जमा ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा में विभिन्न राष्ट्रों के हिस्से के आंकलन का काम सबसे पहले 1991 में भारत की ही संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने किया था। इस संस्थान के अनिल अग्रवाल एवं सुनीता नारायण ने दिखाया कि विकसित देशों ने अपने न्यायपूर्ण हिस्से से कई गुणा अधिक प्रदूषण करके ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दिया।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत कहा गया कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सभी देशों को प्रयास करने होंगे लेकिन विकसित देशों को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी। इस सिद्धांत की भवना के विपरीत विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से बचते रहे हैं और वर्ष 2009 से ही चीन और भारत जैसे देशों पर जलवायु परिवर्तन को रोकने में अधिक योगदान करने का दबाव बना रहे हैं।

इस बीच जलवायु परिवर्तन का संकट गहराता जा रहा है। हर वर्ष अधिक तीव्रता वाले तूफ़ान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इन आपदाओं का असर आर्थिक रूप से पिछड़े और समाज के हाशिये पर जीने वाले लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है।

दुनिया भर में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि उनकी जीवन शैली की सादगी की वजह से जलवायु परिवर्तन करने वाली ग्रीन हाउस गैस में उनका योगदान नगण्य है। फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणाम आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों को ही झेलने पड़ते हैं।

यही वातावरण के न्याय का मुख्य बिन्दु है कि जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार देशों और लोगों के पास प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए साधन ज्यादा होते हैं लेकिन जो देश, और ख़ास तौर से जो तबक़े, इसके लिए सबसे कम ज़िम्मेदार हैं, वही साधनों की कमी की वजह से इन आपदाओं की सबसे अधिक क़ीमत चुकाते हैं। जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ़ इन बड़ी सालाना प्राकृतिक आपदाओं तक ही सीमित नहीं है।

पूर्वी भारत में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे रहने और खेती करने वाले लाखों लोगों को नदी के निरंतर ऊफान की वजह से हुए भू-स्खलन के कारण अपने घरों और खेती की ज़मीन को खोना पड़ा है। इस प्रकार से समुद्री तापमान व क्षारता में आए बदलावों के कारण मछुआरों की आजीविका ख़तरे में है।

निजी मुनाफ़े का धंधा
जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा-आधारित खेती, पशुपालन, व जंगलों पर निर्भर लोगों की ज़िंदगी पर बहुत गंभीर प्रभाव हो रहे हैं। याद रहे कि ये सभी वही समूह हैं जिनकी जीवनचर्या की वजह से जलवायु परिवर्तन जैसे नकारात्मक असर नहीं हुए हैं।

ख़ास बात तो यह है कि छोटे किसानों की जैविक खेती की वजह से खेतों की मिट्टी में कार्बन का संरक्षण होता है और आदिवासियों की देखरेख में पनपे जंगल तो कार्बन का भंडार ही होते हैं। इन वर्गों की जीवनशैली से दुनिया को जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद मिलती है।

वित्तीय पारदर्शिता के अभाव में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी योजनाएँ भी निजी कंपनियों के लिए पैसे बनाने का माध्यम बन कर रह गई हैं। भारत में तेज़ी से फैल रहे सूर्य और पवन ऊर्जा के साधनों का स्वामित्व पूर्णतः निजी हाथों में ही है, और दुर्भाग्य तो यह है कि इन विषयों पर कोई सार्वजनिक चर्चा भी नहीं हो रही है।

जैसे ब्राज़ील के चिंतक पाउलो फरेरे ने लिखा है, "समाज की मुक्ति प्रताड़ित वर्गों की सामाजिक राजनीतिक चेतना और भागीदारी से ही संभव है। पर्यावरण संरक्षण हो या जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करना हो, दलित, आदिवासी, मुसलमान, महिलाओं और समाज के हाशिये पर रहे शोषित वर्गों की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।"

(डॉ. प्रकाश कसवाँ यूनिवर्सिटी ऑफ़ कनेटिकट में राजनीतिक विज्ञान के असोसिएट प्रोफ़ेसर और इकोनॉमिक एंड सोशल राइट्स रिसर्च प्रोग्राम के सह-निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

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