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नज़रिया: यूं ही नहीं कोई अमित शाह हो जाता है

हमें फॉलो करें नज़रिया: यूं ही नहीं कोई अमित शाह हो जाता है
, शुक्रवार, 2 जून 2017 (11:17 IST)
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपने 95 दिनों के देशव्यापी दौरे पर निकल गए हैं। पार्टी की मज़बूत पकड़ वाले इलाक़ों में जड़ें और मज़बूत करने और नए इलाक़ों में पार्टी का विस्तार करने के लिए। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेषन का विश्लेषण...
 
अपने प्रतिद्वंद्वियों से कई क़दम आगे की सोच रखने वाले अमित शाह ने आगामी साल 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ही अपने दिमाग़ में चुनावी रणनीति का खाका खींच लिया है। वो जानते हैं कि बीजेपी के लिए 542 सीटों वाली लोकसभा में अपनी मौजूदा संख्या 281 को बरक़रार रखना चुनौती होगी क्योंकि इनमें से अधिकतर सीटें हिंदी प्रदेशों और पश्चिमी राज्यों से हैं।
 
भाजपा मध्य प्रदेश और राजस्थान में पारंपरिक रूप से मज़बूत रही है क्योंकि यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के मूल संगठन जन संघ की जड़ें पहले से ही गहरी हैं। यहां भाजपा अपनी 2014 की सीटें बरक़रार रखने के लिए निश्चिंत हो सकती है बशर्ते उसकी धुर विरोधी कांग्रेस यहां कोई करिश्मा न कर दे। लेकिन उत्तर प्रदेश हमेशा से अप्रत्याशित रहा है।
 
निसंदेह भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपना लोकसभा चुनावों का करिश्मा दो साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी बरक़रार रखा और शानदार जीत दर्ज की। लेकिन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और उसकी पारंपरिक प्रबल चुनौती रही बहुजन समाज पार्टी के बीच संभावित गठबंधन क्या गुल खिला सकता है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है, भले ही आज ये दोनों ही पार्टियां कितनी ही कमज़ोर क्यों न लग रहीं हों।
 
सपा और बसपा का प्रदेश में अपना मजबूत सामाजिक जनाधार है और दोनों पार्टियां मिलकर क्या कर सकती हैं...ये उन्होंने भुला दिया है कि साल 1993 के विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों ने बेहद मामूली अंतर से भाजपा को हरा दिया था।
 
झारखंड में भाजपा की ही सरकार है। यदि प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा बरक़रार रहता है और वो सत्तारूढ़ शासन के ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी विरोध पर हावी होने में सक्षम नहीं रहते हैं, तब ही भाजपा झारखंड में कुछ सीटें हार सकती हैं।
 
बिहार अनिश्चित है क्योंकि साल 2015 में राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस के बीच हुए महागठबंधन में गहरी दरार दिखने लगी है और हो सकता है कि यदि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के सामने अस्तित्व का प्रश्न न हो तो ये गठबंधन 2019 तक चल ही न पाए।
 
फिलहाल गुजरात भाजपा के लिए सुरक्षित लगता है लेकिन महाराष्ट्र में, जहां भाजपा ने इकतरफ़ा जीत हासिल की थी, चुनाव नतीजे कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अपने संबंधों को फिर से मज़बूत करने और नए कलेवर में जिताऊ विकल्प के रूप में पेश करने पर निर्भर करेंगे।
 
शिवसेना भाजपा के साथ कैसा व्यवहार करती है इसका असर भी चुनाव नतीजों पर होगा। उत्तर और पश्चिम में बन रही इस मिश्रित तस्वीर की पृष्ठभूमि में अमित शाह का 'मिशन दक्षिण' राजनीतिक रूप से बेहद अहम हो जाता है। अमित शाह दो जून से केरल के तीन दिवसीय दौरे पर हैं। वो तेंलगाना और लक्षदीप इसे अवधि के दौरे और आंध्र प्रदेश में अगस्त में लंबा दौरा करने का वादा करके केरल पहुंच रहे हैं।
 
चर्चित ग़लतफ़हमियों के विपरीत, बीजेपी दक्षिण के लिए अनजान नहीं है। वो कर्नाटक में सत्ता में रही है, ये अलग बात है कि उस कार्यकाल पर भ्रष्टाचार, घोटाले और अस्थिरता हावी रही थी। भाजपा ने तमिलनाडु और अविभाजित आंध्र प्रदेश में सीटें जीते हैं और केरल में उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है भले ही वहां वो सीट न जीत पाई हो। लेकिन अमित शाह चार राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगना को ऊपरी मुनाफ़े के रूप में देख रहे हैं। केरल को ही लीजिए।
 
कर्नाटक की सीमा वाले उत्तरी केरल में आरएसएस की मौजूदगी दशकों से रही है, भले ही यहां सीपीआई (एम) के साथ उसका हिंसक झड़पों का इतिहास रहा हो। सीपीआई (एम) यहां आज भी उस पर हावी ही है। लेकिन संघ की मौजूदगी के भाजपा के लिए कोई मायने नहीं हो पाए हैं क्योंकि वैचारिक, सांस्कृतिक और भौतिक झड़पों के बावजूद यहां भाजपा यहां जड़ें गहरी नहीं कर पाई है और एक पार्टी के रूप में नहीं उभर पाई है।
 
राजनीति के माहिर शाह केरल में बीजेपी की पैठ मज़बूत करने के लिए अन्य रणनीतियों पर भी काम कर रहे हैं। बीते विधानसभा चुनावों से पहले उन्होंने भारत धर्म जन सेना से हाथ मिला लिया था। एज़हवा समुदाय के नेता तुषार वेल्लापल्ली की इस पार्टी से अमित शाह ने इस उम्मीद में हाथ मिलाया था कि भाजपा की पहुंच ताड़ी निकालने वाले अन्य पिछड़ी जाति में आने वाले इस समुदाय तक हो जाएगी।
 
अमित शाह और नरेंद्र मोदी नारायण गुरू के अंतिम स्थल माने जाने वाले शिवागिरी मठ भी गए। समाज सुधारक श्री नारायण गुरू को एजहवा समुदाय बहुत मानता है। मोदी और शाह की जोड़ी ने मछुआरा समुदाय से आने वाली 'गले लगाने वाली माता' के नाम से प्रसिद्ध माता अमृतानंदामयी के प्रति भी सम्मान प्रकट किया। साथ ही दलितों के संगठन केरल पुलेयर महासभा पर भी अमित शाह ने डोरे डाले।
 
अमित शाह के सोशल इंजीनियरिंग के प्रयास, जो अन्य स्थानों पर अच्छे नतीजे देते रहे हैं, केरल में नाकाम हो गए। केरल में मतदाता कांग्रेस और सीपीआई (एम) के इर्द-गिर्द ही आकर्षित होते हैं। केरल में, जहां मुसलमानों और ईसाइयों के वोट राजनीतिक रूप से महत्व रखते हैं, बीजेपी को गंभीर प्रतियोगी के रूप में देखा ही नहीं गया।
 
लेकिन अमित शाह ने हार नहीं मानी और अपना केरल मिशन जारी रखा। आरएसएस और वामपंथियों की लड़ाई को उन्होंने भाजपा और वामपंथ की लड़ाई बना दिया जिसमें केंद्र सरकार ने समय-समय पर केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन की सरकार के प्रति धमकी भरा रवैया भी अपनाया।
 
केरल भाजपा ने संघ परिवार के कार्यकर्ताओं की मौत के मामलों में कार्रवाई न करने का आरोप लगाते हुए राज्यपाल तक को घसीट लिया। कांग्रेस को कमज़ोर विकल्प के रूप में दिखाने और वामपंथ के ख़िलाफ़ आक्रमण तेज़ करने के साथ-साथ शाह केरल में भाजपा के संगठनात्मक नेटवर्क को मज़बूत कर रहे हैं और केंद्र सरकार की योजनाओं का ज़बरदस्त प्रचार कर रहे हैं ताकि केरल को भी, एक राजनीतिक अपवाद रहने के बजाए, राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल किया जा सके।
 
केरल में भाजपा की रणनीति के केंद्र में विचारधारा है जो सिर्फ़ आरएसएस-वामपंथ के लड़ाई में ही प्रकट नहीं होती है बल्कि संघ-भाजपा की हिंदू-समर्थक भावनाओं को भुनाने, जो उन्हें लगता है कि वामपंथ-कांग्रेस की 'धर्म-निरपेक्ष' और 'अल्पसंख्यक समर्थक' सत्ता में दबा दी गई हैं।
 
यही वजह है कि केरल में यूथ कांग्रेस के गाय काटने के मुद्दे को केरल भाजपा का हर स्तर का नेता भुना रहा है ताकि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के मुद्दे को और हवा दी जा सके। इस बयानबाज़ी से धार्मिक भावनाएं ज़रूर जागी हैं लेकिन क्या इससे चुनावी फ़ायदा होगा, ये पता चलना अभी बाक़ी है।
 
तेलंगना राष्ट्र समिति की सत्ता वाले तेलंगना में जहां सत्ताधारी नेता के चंद्रशेखर राव ने भाजपा के प्रति तटस्थ रवैया ही अपनाया है, वहां अमित शाह ने अपनी हाल की यात्रा में दो बातें रखी- वामपंथी विचारधारा के अंतिम अवशेषों को भी साफ़ किया जाए जो उन्हें लगता है कि कभी माओवादियों की सत्ता में रहे इलाक़ों में अब भी मौजूद है और रज़ाकारों से मिले भावनात्मक घावों को फिर से उभारा जाए।
 
रज़ाकार हैदराबाद के निज़ाम की निजी सेना थी जिसने भारत की आज़ादी के बाद भारत में हैदराबाद के शामिल होने का विरोध किया था। आंध्र प्रदेश में भाजपा को फूंक-फूंक कर क़दम रखना है क्योंकि यहां उसका तेलगुदेशम पार्टी के साथ गठबंधन है जो समय-समय पर खटाई में पड़ता रहता है।
 
जब शाह आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती में थे तो उन्होंने बीजेपी के कार्यकर्ताओं को केंद्र की योजनाओं को लोगों तक ले जाने का संदेश दिया। इससे संकेत मिला कि उनकी पार्टी राज्य में अपनी पकड़ मज़बूत रखने के इरादे रखती है।
 
कर्नाटक में इस समय कांग्रेस की सरकार है और यहां 2018 में चुनाव होने हैं। ये दक्षिण भारत में बीजेपी की अहम परीक्षा होगी। दक्षिण में भाजपा तमिलनाडु में सबसे ज़्यादा कमज़ोर है और यहीं पार्टी की जोड़-तोड़ की राजनीति काम में लाई जाएगी।
सत्ताधारी एआईएडीएमके के दोनों घटक दलों को केंद्र में लाकर उसने उम्मीद की थी कि इनमें से कोई एक लोकसभा चुनाव से पहले उसके साथ गठबंधन कर ही लेगी। भाजपा चर्चित सिने स्टार रजनीकांत पर भी नज़रें बनाए हुए है। लेकिन अभी तक न ही रजनीकांत ने अपने पत्ते खोले हैं और न ही भाजपा ने।
 
(वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेषन से बातचीत पर आधारित)

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