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क्या रोहिंग्या जैसा होगा 40 लाख लोगों का हाल

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, मंगलवार, 31 जुलाई 2018 (11:59 IST)
- सौतिक बिसवास
 
पहचान और नागरिकता का प्रश्न असम में रहने वाले लाखों लोगों के लिए लंबे वक्त तक परेशानी का सबब बना रहा। असम भारत का वो राज्य है, जहां बहुत-सी जातियों के लोग रहते हैं। बंगाली और असमी बोलने वाले हिंदू भी यहां बसते हैं और उन्हीं के बीच जनजातियों के लोग भी रहते हैं।
 
 
असम की तीन करोड़ बीस लाख की आबादी में एक तिहाई आबादी मुस्लिमों की हैं। आबादी के प्रतिशत के लिहाज से भारत प्रशासित कश्मीर के बाद सबसे ज़्यादा मुस्लिम यहीं रहते हैं। इनमें से कई ब्रितानी शासन के दौरान भारत आकर बस गए प्रवासियों के वंशज हैं। लेकिन पड़ोसी देश बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी दशकों से चिंता का विषय रहे हैं। इनके खिलाफ छह साल तक प्रदर्शन किए गए। इस दौरान सैंकड़ों लोगों की हत्याएं हुईं।
 
 
इसके बाद 1985 में प्रदर्शनकारियों और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता हुआ। सहमति बनी कि जो भी व्यक्ति 24 मार्च 1971 के बाद सही दस्तावेज़ों के बिना असम में घुसा है, उसे विदेशी घोषित किया जाएगा। अब विवादित एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी होने के बाद पता चला है कि असम में रह रहे क़रीब 40 लाख लोग अवैध विदेशी हैं।
 
 
आलोचना
बीते कुछ सालों में विशेष अदालतें करीब 1,000 लोगों को विदेशी घोषित कर चुकी थीं। इनमें ज़्यादातर बंगाली बोलने वाले मुस्लिम थे। ये लोग हिरासत केंद्रों में बंद हैं। प्रवासियों के बच्चों को उनसे अलग करने की अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की नीति की दुनियाभर में आलोचना हुई। असम में भी ठीक उसी तरह परिवारों को तोड़ा गया है। एनआरसी सूची आने के बाद रातों-रात लाखों लोग स्टेटलेस (किसी भी देश का नागरिक न होना) हो गए हैं। ऐसे में राज्य में हिंसा का ख़तरा भी बढ़ गया है। 
 
 
असम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा वाली भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। पार्टी पहले ही प्रवासी मुस्लिमों को वापस बांग्लादेश भेजने की बात कह चुकी है। लेकिन पड़ोसी बांग्लादेश भारत की ऐसी किसी अपील को स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे में ये लोग भारत में ही रहेंगे और ठीक वैसे ही हालात पैदा होने का ख़तरा रहेगा, जैसे म्यांमार से बांग्लादेश भागे रोहिंग्या के साथ हुआ था।
 
 
दशकों से असम में रह रहे लोगों की भारतीय नागरिकता छीन ली गई है। अब ना तो ये लोग पहले की तरह वोट कर सकेंगे, ना इन्हें किसी कल्याणकारी योजना का लाभ मिलेगा और अपनी ही संपत्ति पर इनका कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिन लोगों के पास ख़ुद की संपत्ति है वो दूसरे लोगों का निशाना बनेंगे।
 
 
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी स्टेटलेसनेस को ख़त्म करना चाहती है, लेकिन दुनिया में क़रीब एक करोड़ लोग ऐसे हैं जिनका कोई देश नहीं। ऐसे में भारत के लिए हालिया स्थिति असहज करने वाली होगी। मोदी सरकार पहले से इस बात को लेकर घबराई हुई है। सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री का कहना है कि जिन लोगों का नाम एनआरसी सूची में नहीं आया, उन्हें डिटेंशन कैंप में नहीं रखा जाएगा और नागरिकता साबित करने का एक और मौक़ा दिया जाएगा।
 
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लेकिन दूसरी तरफ नया डिटेंशन कैंप बनाने की बात भी कही जा रही है, जिसमें नागरिकता साबित करने में नाकाम रहने वाले लोगों को रखा जाएगा। साथ ही, वकीलों का कहना है कि जिन लोगों के नाम सूची में नहीं आए हैं वो लोग विशेष अदालत में अपील कर सकते हैं। फिर तो इन लाखों लोगों की किस्मत का फैसला होने में दसियों साल लग जाएंगे।
 
 
भारत में उत्तर-पूर्व की स्थिति पर अध्ययन कर चुके सुबीर भौमिक का कहना है कि ये मामला बेहद पेचीदा हो चुका है। वो कहते हैं, "अराजकता की संभावना बढ़ गई है। अल्पसंख्यकों में घबराहट है। बांग्लादेश में भी डर है कि कहीं ये शरणार्थियों उनके यहां ना आ पहुंचें। स्टेटलेस लोगों को डिटेंशन कैंप में भरने का मामला पूरी दुनिया का ध्यान खींचेगा। इन सब चीज़ों में खर्चा भी बहुत होगा।"
 
 
इसमें कोई शक नहीं है कि अवैध प्रवासी असम में एक गंभीर समस्या बन गए हैं। 1971 में हज़ारों लोग बांग्लादेश से भागकर असम आ गए थे। यहां आने के बाद इन लोगों की आबादी बढ़ी और आज असम में इनकी तादाद लाखों में है।
 
 
इसकी वजह से राज्य पर कई असर पड़े, रहने के लिए जगह कम पड़ने लगी, भूखंड छोटे होते चले गए। यहां रह रहे अवैध प्रवासियों की संख्या 40 लाख से एक करोड़ तक है। इनमें से ज़्यादातर खेती-बाड़ी का काम करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़, असम के 33 ज़िलों में से 15 ज़िलों में इनकी अच्छी-ख़ासी मौजूदगी है। 1985 से विशेष अदालतें 85,000 से ज़्यादा लोगों को विदेशी घोषित कर चुकी है।
 
 
लेकिन कई लोगों का आरोप है कि नरेंद्र मोदी की बीजेपी ने चुनावी फ़ायदे के लिए सांप्रदायिकता को हवा दी है। पार्टी कह चुकी है कि अवैध मुस्लिम प्रवासियों को उनके देश वापस भेजा जाएगा, जबकि अवैध हिंदू प्रवासियों को यहीं रहने दिया जाएगा।
 
 
जाने-माने असमिया लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हिरेन गोहेन कहते हैं, "आप इसे सही कहें या ग़लत, लेकिन नागरिकता के इस मामले ने बहस छेड़ दी है। असम की राजनीति में ये अहम मुद्दा बन गया है। जब तक ये मामला सुलझ नहीं जाता, आप आगे नहीं बढ़ सकते।"
 
 
"राज्य का असली नागरिक कौन हैं और बाहरी कौन हैं, ये पता लगाना ज़रूरी है।" एनआरसी सूची तैयार करने में अबतक 18 करोड़ डॉलर का ख़र्च आया है। इस सूची के आने के बाद लोगों में एक दूसरे के लिए नफरत और अविश्वास बढ़ा है।
 
 

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