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क्या राह भटक गए हैं नवबौद्ध?

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, मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014 (12:04 IST)
- संजीव चंदन  

डॉक्टर अंबेडकर को मसीहा मानने वाला महाराष्ट्र का दलित समाज उनके एक आह्वान पर एक झटके में अपने पुराने धर्म को त्यागकर नए धर्म में प्रवेश कर गया। इतिहास में यह घटना नवबौद्ध क्रांति कहलाती है। धर्म परिवर्तन के पहले हिंदू महार नागपुर के कुछ नवबौद्धों से संजीव चंदन ने बात की।



उन्होंने इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की कि क्या अंबेडकर के नेतृत्व में 14 अक्टूबर 1956 को हुई बौद्ध क्रांति की लौ अभी भी जल रही है। क्या था नवबौद्ध आंदोलन, पढ़ें संजीव चंदन की रिपोर्ट

14 अकटूबर 1956 के दिन कविश्वर बहादुरे 26-27 साल के थे। अब 83-84 साल के हो चुके कविश्वर उस दिन के रोमांच को याद करते हैं।

उन्होंने बताया, 'बाबा साहब ने कहा कि दीक्षा के लिए सफेद कपड़े में आना है। हडकंप हो गया। स्त्रियां सफेद कपड़े को अपशकुन मानती थीं, लेकिन बाबा साहब के कहने पर वे कुछ भी करने को तैयार थीं। लेकिन उतने कपड़े कहां से आएं। नागपुर के आसपास के सारे मिलों के सफेद कपड़े खत्म हो गए। तब भी उतनी बड़ी संख्या के लिए वे कम पड़ गए।'

उन्होंने बताया, 'स्त्रियां तब नौ हाथ की साड़ियां पहनती थीं। उपाय निकाला गया। बाबा साहब को समझाया गया, तो थोड़ी ढील दी उन्होंने और लोग दूसरे कपड़ों में भी आ सके।' दर्जी का काम करने वाले कविश्वर बहादुरे ने तब दिन-रात एक करके लोगों के कपड़े बनाए थे।

इतना आसान भी नहीं था पुराने धर्म से अचानक छुटकारा। बहादुरे जैसे कई लोगों ने जब अपने देवी–देवताओं को कुंए में फेंका, तो उनकी माएं शाप की आशंका से भर गईं। कवीश्वर कहते हैं, 'यही स्त्रियां थीं, जिन्होंने बाबा साहब के कहे का अक्षरशः पालन भी किया। उन्होंने बाबा के शिक्षा के संदेश को गांठ की तरह बांध लिया और अपने बच्चों को पेट काटकर भी पढ़ाया।'
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तब और अब : पिछले तीन अक्टूबर को नागपुर की दीक्षाभूमि में सब कुछ यथावत था। बौद्धों की अनुशासित भीड़, बिकती हुई बौद्ध व्याख्याओं सहित दलित–बहुजन विचारकों की दूसरी किताबें। सिर्फ चुनाव और आचार संहिता के कारण मंच पर दलित–बौद्ध नेता मौजूद नहीं थे।

हर साल हिंदू मान्यता की 'विजयादशमी' और नवबौद्ध परंपरा के अनुसार 'धम्मचक्र परावर्तन दिवस' को यह भीड़ इकट्ठी होती है।

सामाजिक कार्यकर्ता अशोक काम्बले कहते हैं, 'दीक्षाभूमि की इस धार्मिक भीड़ में कई चेहरे होते हैं। ठेठ ग्रामीण मराठी–मानुष, तो अभी–अभी निम्न मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग में दाखिल हुई बौद्ध–दलित जमात।'

आस्था की नई जमीन : वे बताते हैं, 'लेकिन इस भीड़ का वर्गीय स्वरूप हमेशा से वैसा नहीं रहा है। कल्पना करिए कि 56 के तुरंत बाद कैसे–कैसे लोग अपनी फटेहाली के बावजूद, दो दिन का अपना राशन–पानी लेकर उमड़े होंगे यहां। खुले आसमान के नीचे सोना–खाना, आराधना और किताबों की खरीद। यही उत्सव थे उनके।'

वे कहते हैं, '14 अक्टूबर 1956 को धार्मिक क्रांति के बाद हासिल नई आस्था की जमीन सामाजिक सरोकारों से लैस थी। लोगों को हिंदू धर्म की ‘जड़ता’, छुआछूत से एक झटके में छुटकारा मिल गया। लोग मुक्त थे।'

वे बताते हैं, 'मुक्ति हालांकि एक क्रमिक प्रक्रिया है। अभी भी कुछ दलित बौद्ध पुरानी आस्था से मुक्ति की जद्दोजहद में लगे हैं।' कुछ बौद्ध घरों में आज भी हिंदू देवी–देवताओं की तस्वीरें मिल जाती हैं। नई उम्र के दलित–बौद्ध लड़के ‘गणपति उत्सवों में शामिल होते हैं।’

आस्था से मुक्ति : समता सैनिक दल के अध्यक्ष और अंबेडकरवादी विचारक विमलसूर्य चिमनकर कहते हैं, 'यह व्यापक बौद्ध आस्था का हिस्सा नहीं है।'

वे बताते हैं, 'ऐसा जरूर हुआ है कि डॉक्टर अंबेडकर के बाद कोई बड़ा दलित–बौद्ध मार्गदर्शक नहीं हुआ जो इस क्रांति को आगे ले जाए।'

चिमनकर कहते हैं, 'यह सही है कि दीक्षाभूमि पर या डॉक्टर अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को सारे दलित नेतृत्व इकट्ठा होते हैं। यह भी उतना ही सच है कि बौद्ध आंदोलन को लेकर एकमत बनाने वाला बड़ा नेतृत्व नहीं बन पाया है, लेकिन निराश होने की जरूरत नहीं है स्थितियां 5-10 सालों में बदलेंगी।'

वे आगे कहते हैं, 'आमदार निवास के ठीक नीचे चाय बेचने वाली बौद्ध महिला की दुकान पर डॉक्टर अंबेडकर, महात्मा बुद्ध और लक्ष्मी की प्रतिमाएं एक साथ देखना आपको चौंका सकता है, लेकिन यह मुट्ठी भर लोगों की आस्था से मुक्ति की जद्दोजहद का एक नमूना है।'

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