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जहां लोग करते हैं मौत का इंतज़ार...

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BBC Hindi

, बुधवार, 3 जुलाई 2019 (08:32 IST)
रोमिता सलूजा
बीबीसी ट्रेवल
 
पिछले साल नवंबर की एक दोपहर मैं मुमुक्षु भवन के अहाते में नीम के एक विशाल पेड़ की छांव में खड़ी थी। पास के कमरे से भजन की आवाज़ आ रही थी। नाटे कद की एक महिला ने मेरे पास आकर नमस्ते किया। उनके हाथ में नमक पारे का एक बड़ा पैकेट था।
 
उनकी उम्र करीब 80 साल रही होगी। उन्होंने मुझे नमक पारे खाने को दिया तो मैंने भूख नहीं होने की बात कही। उन्होंने प्यार से कहा "मैं तुम्हें बिना कुछ खाये जाने नहीं दूंगी।" वह मुस्कुराईं तो मैंने एक नमक पारे लेकर खा लिया।
 
वह थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ खाते रहने की सलाह देती हुई चली गईं। मैं उनसे भजन के बारे में पूछना चाहती थी लेकिन तब तक वह अहाते से निकल चुकी थीं। लॉज के मैनेजर मनीष कुमार पांडे ने बाद में मुझे बताया कि सरस्वती अग्रवाल विधवा हैं और उनकी कोई औलाद नहीं है।
 
वह चार साल पहले यहां आई थीं जब उनके पति का निधन हो गया था। उनके साथ रहने वाली गायत्री देवी राजस्थान की हैं। वह पिछले 5 साल से लॉज में रह रही हैं। उनका एक बेटा और दो बेटियां देश के दूसरे हिस्सों में रहते हैं, लेकिन वे शायद ही कभी मां से मिलने आते हैं।
 
मौत का इंतज़ार
हम लॉज के अहाते में ही एक बेंच पर बैठकर घर-परिवार और उनके जीवन-दर्शन से लेकर महिला अधिकारों तक दुनिया-जहान की बातें करते रहे। उनकी मुस्कान बड़ी अच्छी थी। बातें करके उनको अच्छा लग रहा था। उन्होंने कहा- "बच्चों की शादी हो जाने के बाद चीजें बदल जाती हैं।"
 
सती देवी हमारे पास में ही बेंच पर बैठी हुई थीं। उन्होंने सिर हिलाकर गायत्री देवी की बात का समर्थन किया। सती देवी भी यहां पांच साल से रह रही हैं।
 
गायत्री देवी कहे जा रही थीं, "मुझे कोई शिकायत नहीं है। जब मैं मर जाऊंगी तो मुझे उम्मीद है कि वे मुझे चिता तक पहुंचाने के लिए आएंगे।"
 
ये तीनों महिलाएं उन सैकड़ों लोगों में शामिल हैं जो कई सालों से वाराणसी में रहकर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
 
मोक्ष की तलाश
वाराणसी (काशी या बनारस) हिंदुओं के लिए दुनिया के सबसे पवित्र शहरों में से एक है। महाभारत युद्ध जीतने के बाद पांडव भी अपने पापों से मुक्ति के लिए काशी आए थे। लोग मोक्ष की तलाश में सदियों से यहां आते रहे हैं।
 
हिंदू धर्मग्रंथ कहते हैं कि यहां मरने और गंगा किनारे दाह-संस्कार होने से जन्म-मरण का चक्र टूट जाता है और मोक्ष मिलता है। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर लगातार चिताएं जलती रहती हैं। घाट की सीढ़ियां गंगा तट तक जाती हैं।
 
नदी के पानी का रंग औद्योगिक और मानवीय कचरे के कारण काला मटमैला हो गया है। फिर भी मान्यता है कि यह सभी पापों को धो देता है।
 
एक तरफ सैलानी और तीर्थयात्री नावों में बैठकर घाट घूमते हैं, वहीं दूसरी तरफ चिता से उठते धुएं के बीच पुजारियों और मृतक के परिजनों को मरने वाले की आत्मा की शांति के मंत्रोच्चार करते देखा जा सकता है।
 
मुक्ति के लिए काशी आने वाले पुरुषों और महिलाओं को काशीवासी कहा जाता है। उनके लिए विशेष लॉज बने हुए हैं जिनको चैरिटी संगठनों और व्यापारिक समूहों से दान मिलता है।
 
लंबा इंतज़ार
मुमुक्षु भवन इस तरह के सबसे पुराने प्रतिष्ठानों में से एक है। यहां के 116 कमरों में से 40 कमरे मृत्यु का इंतज़ार करने वाले काशीवासियों के लिए आवंटित हैं।
 
यहां के मैनेजर वीके अग्रवाल का कहना था कि "हर साल हमें ढेरों आवेदन मिलते हैं, लेकिन कमरों की संख्या सीमित है और हम सबको नहीं रख सकते।"
 
"हम उनको प्राथमिकता देते हैं जो ज़्यादा ज़रूरतमंद होते हैं, जो अपने ख़र्च उठा सकते हैं और जिनके रिश्तेदार उनकी सेहत और मृत्यु के बाद दाह-संस्कार की ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं।" मुमुक्षु भवन में 60 साल से कम उम्र के लोगों को नहीं रखा जाता।
 
काशीवासी अपनी क्षमता के अनुसार करीब एक लाख रुपये का दान देते हैं तो उनको एक कमरा आवंटित कर दिया जाता है, जहां वे मरने तक रह सकते हैं।
 
अग्रवाल के मुताबिक, "उनको अपना खाना ख़ुद बनाना होता है, हम खाना मुहैया नहीं कराते। लेकिन अगर कोई ख़र्च उठाने में सक्षम नहीं है तो प्रबंधन मदद कर देता है, जैसे कि दाह संस्कार में।"
 
कुछ कमरे दूसरों के मुक़ाबले बड़े हैं और उनमें एयर कंडीशनर भी लगे हैं। वहां खाना बनाने की भी जगह है बाथरूम साझा हैं। अगर कोई बीमार पड़ता है तो होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयों के केंद्र भी हैं। यहां रहने वाले बुजुर्ग खाना बनाने और साफ-सफाई के लिए सहायकों को रखने के लिए स्वतंत्र हैं।
 
एक पुराना ट्रांजिस्टर लेकर बैठी गायत्री देवी ने मुझे बताया था कि भजन करने और दूसरों से बातें करने में दिन कट जाता है।
 
15 दिन वाले मेहमान
वाराणसी की पतली गलियों के बीच में बने मुक्ति भवन के अलग नियम हैं। यहां के केयर-टेकर नरहरि शुक्ला से मैं उनके ऑफिस में मिली थी तो उन्होंने मुक्ति भवन के नियम समझाए थे।
 
"लोग यहां मोक्ष के लिए आते हैं। यह होटल नहीं है। यहां एयर कंडीशनर जैसे विलासिता के साधनों की क्या ज़रूरत है?" मुक्ति भवन में अधिकतम 15 दिन रहने की ही अनुमति है। यदि बीमार व्यक्ति इस दौरान नहीं मरता तो उसे विनम्रता के साथ चले जाने के लिए कहा जाता है।
 
शुक्ला के मुताबिक, "कुछ अपवाद भी हैं। कभी-कभी आदमी की सेहत देखकर मैनेजर उसे कुछ दिन और रुकने की अनुमति दे सकते हैं।" यहां रहने वाले मेहमान बिजली के लिए प्रतिदिन 20 रुपये देते हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे पूजा-पाठ करने में समय बिताएं।
 
वहां एक छोटा मंदिर भी है जहां प्रतिदिन भजन-कीर्तन होता है। यहां ताश के पत्ते खेलने, यौन क्रिया में लिप्त होने, मांस, अंडे और प्याज-लहसुन खाने की मनाही है। जब मैं वहां पहुंची थी तो वहां कोई मेहमान नहीं रुका था। मेरे अनुरोध पर शुक्ला मुझे 8 कमरों वाला लॉज दिखाने ले गए।
 
हरे रंग का लकड़ी का एक दरवाजा खोलकर शुक्ला मुझे एक छोटे से कमरे में ले गए जिसकी सफेद दीवारें गंदी हो चुकी थीं। वहां रोशनी आने के लिए एक छोटी खिड़की थी, जहां से आ रही रोशनी में कमरे की धूल साफ दिख रही थी।
 
मृत्युशैया
कमरे के कोने में लकड़ी की एक खाट बिछी थी। मेरे ज़हन में तुरंत उस खाट पर एक बूढ़ी महिला की मृत्यु का दृश्य घूम गया।
 
शुक्ला ने मुझे बताया कि यहां आने वाले मेहमानों के परिजन इसी कमरे में रहते हैं और अपने सोने के गद्दे और अन्य ज़रूरी सामान ख़ुद लाते हैं।
 
"सर्दी के महीनों (दिसंबर से फरवरी) और गर्मी के महीनों (मई से अगस्त) में मेहमानों की तादाद बढ़ जाती है क्योंकि उन दिनों लाचार और बूढ़े लोगों के लिए जीवन कठिन हो जाता है।"
 
"यहां ऐसे लोग भी रहे हैं जो यहां से लौटकर दो साल तक जीवित रहे। ऐसे लोग भी हैं जो मौत के इंतज़ार में यहां दो हफ्ते बिताने के बाद घर लौटे और घर पहुंचते ही उनकी मृत्यु हो गई।"
 
ऊपर की ओर इशारा करते हुए शुक्ला ने कहा था, "यह सब उनके हाथों में है। अगर वे नहीं चाहते तो आप काशी में सालों साल रहने के बाद भी नहीं मरेंगे।"
 
मुझे मुमुक्षु भवन में रहने वाली सती देवी की याद आ गई जिन्होंने बताया था कि वे कब से वाराणसी में रह रही हैं इसका उनको ख्याल नहीं है।
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40 साल की प्रतीक्षा
पांडे ने मुझे हैदराबाद की विमला देवी के बारे में बताया था जिन्होंने वाराणसी में रहकर 40 साल तक मौत का इंतज़ार किया। पिछले साल मुमुक्षु भवन में उनका निधन हुआ था।
 
मैं सोचती हूं कि अगर गायत्री देवी और सरस्वती अग्रवाल के बच्चे उनको अपने साथ रखते तब भी क्या वे अपनी ज़िंदगी के आख़िरी कुछ साल अकेले बिताने के लिए वाराणसी के एक लॉज में आतीं।
 
लेकिन पांडे ने मुझे ऐसे दंपतियों के बारे में भी बताया था जिन्होंने वाराणसी आने के लिए अपना सफल कारोबार बच्चों के हाथ में सौंप दिया था। शुक्ला का कहना था कि "लोग अपने नाम के साथ कुछ पुण्य जोड़कर इस दुनिया से जाना चाहते हैं।"
 
मुक्ति भवन के एक मैनेजर ने एक नक्सली को भी आश्रय दिया था, जो हिंसक गतिविधियों में लिप्त रहा था। "यहां कई अपराधी आ चुके हैं। कितना भी खूंखार अपराधी हो उसका एक धर्म होता है और वह इस दुनिया से जाने से पहले अपने पापों से मुक्ति चाहता है।"
 
शुक्ला के ऑफिस की आलमारियों में हिंदू धर्मग्रंथ और मेहमानों के रिकॉर्ड्स वाली मोटी-मोटी फ़ाइलें रखी हैं। मृतकों के बारे में पूछते हुए मैं सतर्क थी, लेकिन शुक्ला उनके प्रति उदासीन बने रहे। क्या मृत्यु इतनी आम हो सकती है?
 
शिव की नगरी
मैने उनसे पूछा था कि चारों ओर मृत्यु से घिरे होने पर कैसा लगता है। उनका जवाब था- "हमें मृत्यु का भय नहीं है। हम इसका उत्सव मनाते हैं। लोग यहां उम्मीद से आते हैं, डर से नहीं। यह भगवान शिव की नगरी है।"
 
मुझे ध्यान लगाए शिव का स्मरण हो आया। हिंदुओं के मुताबिक शिव संहार के देवता है। वह सृजन के लिए संहार करते हैं। एक स्थानीय कहावत है- "स्वर्ग तक पहुंचने के लिए आपको पहले मरना होगा।"
 
वाराणसी से मेरे लौटने के कुछ ही हफ्ते बाद गायत्री देवी का निधन हो गया। मैंने किसी और काम के लिए पांडे को फोन किया था तो उन्होंने मुझे इस बारे में बताया।
 
मैं चौंक गई थी। पांडे भी शुक्ला की तरह चुप और उदासीन थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या गायत्री देवी की बेटी उनको चिता तक ले जाने के लिए आई थी। पांडे ने कहा कि हां, वह आई थी।

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