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दिल्ली के प्रदूषण से निपटने के लिए पिछले 40 साल से कैसे जूझ रहा है सुप्रीम कोर्ट

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BBC Hindi

, शनिवार, 18 नवंबर 2023 (07:58 IST)
उमंग पोद्दार, बीबीसी संवाददाता
दिल्ली में हवा की गुणवत्ता 'खतरनाक' स्तर पर पहुंचने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर इस बात पर विचार कर रहा है कि प्रदूषण को कम कैसे किया जाए।
 
अदालत ने नोट किया कि इससे निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की जरूरत थी। उसने विभिन्न मुद्दों पर विचार किया, जैसे कि पराली जलाने को कैसे कम किया जा सकता है और क्या पंजाब में धान उगाया जाना चाहिए, क्या दिल्ली में गाड़ियों के लिए ऑड-ईवन की नीति होनी चाहिए।
 
हालांकि सुनवाई की अगली तारीख पर कोर्ट ने कहा कि नीति को लागू करने का निर्णय लेने के लिए प्रशासन सबसे उपयुक्त होगा। अदालत ने कहा कि उसकी चिंता केवल इतनी है कि अधिकारी ठीक से काम करें।
 
सुप्रीम कोर्ट पिछले करीब 40 साल से सक्रिय रूप से दिल्ली और उसके आसपास के प्रदूषण से निपटने की कोशिशें कर रहा है, जबकि राजधानी की हवा की गुणवत्ता खराब होती जा रही है।
 
विशेषज्ञों के मुताबिक़, अदालत ने शहर के पूरे परिदृश्य को बदलते हुए दूरगामी आदेश दिए हैं। अदालत ने यह तय किया है कि दिल्ली में किस तरह के वाहन चल सकते हैं, हजारों कारखानों को स्थानांतरित किया गया और कई व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सील कर दिया गया।
 
हालाँकि कुछ लोग इन सुधारों को बढ़ावा देने के लिए अदालत की सराहना करते हैं, लेकिन अक्सर नीतिगत मुद्दों पर ध्यान न देने के लिए उसकी आलोचना भी की जाती है।
 
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एमसी मेहता ने 1984-85 में, दिल्ली में वाहनों के प्रदूषण, ताज महल के जीर्ण-शीर्ण संगमरमर और गंगा-यमुना नदी में प्रदूषण से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट में कई जनहित याचिकाएं दायर की थी।
 
मामले अभी भी अदालतों में लंबित हैं। राजधानी के आसपास प्रदूषण के व्यापक मुद्दों से निपटने के लिए इन मामलों की प्रकृति भी काफी हद तक बदल गई है। समय-समय पर इनमें नए मुद्दे जोड़े जाते रहे हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में स्मॉग की हालिया समस्या को मौजूदा वाहन प्रदूषण मामलों में जोड़ा गया।
 
हालाँकि अपनी पिछली सुनवाई में, सुप्रीम कोर्ट ने कोई नीतिगत उपाय करने का आदेश नहीं दिया, लेकिन इससे पहले वो ऐसा करता रहा है। कभी-कभी ये उपाय कठोर रहे हैं। जैसे साल 1998 में अदालत ने आदेश दिया कि डीजल पर चलने वाले सार्वजनिक परिवहन के वाहनों का पूरा बेड़ा, जिसमें करीब 100,000 वाहन थे, उन्हें 2001 तक सीएनजी में बदला जाए।
 
सरकार की ओर से इस आदेश का कड़ा विरोध किए जाने के बाद भी अदालत अपने आदेश से पीछे नहीं हटी। इस कदम की वैज्ञानिक प्रभावकारिता या व्यावहारिकता पर विवाद था।
 
अदालत ने दिल्ली में वाहनों की बारीकियों पर भी गौर किया, जैसे कि ऑटोरिक्शा के लिए लाइसेंस कैसे दिए जाने चाहिए, वाहनों में किस प्रकार के गैसोलीन और इंजन का उपयोग किया जा सकता है, पुराने वाणिज्यिक वाहनों को चलाने की समय-सीमा और कई अन्य मामले।
 
अदालत ने इंफ्रास्ट्रक्टचर परियोजनाओं की भी देखरेख की है। अदालत ने 2000 के दशक की शुरुआत में यातायात को कम करने और प्रदूषण को कम करने के लिए केंद्र सरकार को दिल्ली के चारों ओर दो एक्सप्रेस वे बनाने का आदेश दिया। बाद में सालों में उसने इसकी प्रगति की निगरानी भी की।
 
वो निर्णय जिनपर सवाल उठे
कई बार तो सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसले से पलट गया है। उदाहरण के लिए 2019 में अदालत ने पराली जलाने के लिए किसानों को फटकार लगाई, जो प्रदूषण बढ़ाने में सहायक है।
 
अदालत ने आदेश दिया कि जो कोई भी ऐसा करेगा उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। हालांकि इसके ठीक दो दिन बाद अदालत ने कहा कि किसानों को दंडित करना अंतिम समाधान नहीं होगा। अदालत ने कहा कि कई किसानों को मजबूरी में पराली जलानी पड़ती है। अदालत ने सरकार को इन किसानों को सहायता देने के लिए कहा।
 
सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों पर विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं। उदाहरण के लिए, नवंबर 2019 में, अदालत ने केंद्र सरकार को राजधानी में स्मॉग टावर लगाने का निर्देश दिया। ये स्मॉग टावर बड़े पैमाने पर वायु शोधक की तरह काम करते हैं।
 
कई विशेषज्ञों ने बीबीसी को बताया कि स्मॉग-टावर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में वैज्ञानिक रूप से सक्षम नहीं हैं।
 
इनमें से अधिकांश आदेश पर्यावरण प्रदूषण (संरक्षण और नियंत्रण) प्राधिकरण (ईपीसीए) की सिफारिशों के आधार पर आए हैं। यह प्राधिकरण अदालत के आदेश पर गठित पांच सदस्यों वाला वैधानिक निकाय है। हालाँकि, कई बार अदालत ईपीसीए की सिफारिशों के खिलाफ भी गई है।
 
अदालत के फ़ैसलों का असर
कई विशेषज्ञों ने अदालत के काम करने के तरीके की आलोचना की है। एक मशहूर वरिष्ठ वकील ने लिखा है कि अदालत बरगद के पेड़ की छाया में न्याय देने वाली ग्राम पंचायत की तरह काम करती है।
 
इसने "नीति-निर्माता, कानून-निर्माता, सार्वजनिक शिक्षक और सुपर प्रशासक" की भूमिका निभाई, ये भूमिकाएं अन्य देशों में अलग-अलग निकाय निभाते हैं।
 
जनहित याचिका के विशेषज्ञ अनुज भुवानिया ने अपनी पुस्तक 'कोर्टिंग द पीपल' में अदालत के कामकाज की तुलना मध्यकालीन अदालतों या दरबार से की है।
 
भुवानिया के मुताबिक मुट्ठी भर वकीलों और मुकदमेबाजों ने इन मामलों के माध्यम से नीति निर्माण की प्रक्रिया को अपने कब्जे में ले लिया। इससे हजारों लोगों की आजीविका प्रभावित हुई।
 
उन्होंने बीबीसी से कहा, "इस बिंदु पर ईमानदारी से कहूं तो अगर उन्होंने (अदालत ने) इससे अपना हाथ धो लिया, तो इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने बहुत नुकसान किया है।"
 
उन्होंने कहा कि पूरे व्यावसायिक वाहनों के बेड़े को सीएनजी में बदलने के सुप्रीम कोर्ट के अप्रत्याशित आदेश से निजी परिवहन में भारी बढ़ोतरी हुई, इस प्रक्रिया में सार्वजनिक परिवहन और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा।
 
विशेषज्ञों का यह भी मानना ​​है कि सुप्रीम कोर्ट का सक्रिय रुख प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय जैसे अन्य निकायों के विकास की कीमत पर आया है।
 
अदालत की भूमिका
वहीं अन्य विशेषज्ञों का मानना ​​है कि अदालत ने हालात बदतर नहीं किए हैं। पर्यावरण मामलों की वकील शिवानी घोष कहती हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने चीजों को बदतर नहीं बनाया है, उसके कुछ हस्तक्षेपों का जमीन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।"
 
पर्यावरण कानूनों के एक और विशेषज्ञ, ऋत्विक दत्ता ने कहा कि निचली अदालतें या विशेष न्यायाधिकरण भी मौजूदा पर्यावरण कानूनों को लागू करने और इसके उल्लंघन करने वालों को दंडित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
 
लेकिन उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट तभी मामले की सुनवाई करता है जब प्रदूषण चरम पर होता है। जैसे ही हवा की गुणवत्ता में सुधार होता है मामले ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं।

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